महाकुंभ: आस्था का पर्व, न कि सांप्रदायिक विवाद

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निर्मल कुमार महाकुंभ मेला विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है, जो आस्था, आध्यात्मिकता और भारतीय सांस्कृतिक विरासत का भव्य उत्सव है। यह अद्वितीय आयोजन प्रत्येक बारह वर्षों में प्रयागराज के संगम तट पर आयोजित होता है, जहां पवित्र गंगा, यमुना और दिव्य सरस्वती नदियों का संगम होता है। यह मेला भारत की सांस्कृतिक समृद्धि और कुशल संगठन क्षमता का अद्भुत उदाहरण है। दुर्भाग्यवश, कुछ लोग इस पवित्र अवसर को राजनीतिक रंग देने और सांप्रदायिक दृष्टि से देखने का प्रयास कर रहे हैं, जो न केवल भ्रामक है, बल्कि समाज को बांटने की एक दुर्भावनापूर्ण कोशिश भी है। महाकुंभ: आस्था और परंपरा का प्रतीक महाकुंभ मेला केवल आस्था से जुड़ा एक धार्मिक आयोजन है। इसका मूल आधार वह पौराणिक कथा है, जिसमें समुद्र मंथन के दौरान अमृत की बूंदें चार स्थानों – प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिरीं, जिससे इन स्थानों को विशेष आध्यात्मिक महत्व प्राप्त हुआ। हिंदू धर्म में मान्यता है कि कुंभ मेले के दौरान इन स्थानों पर पवित्र स्नान करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है। लेकिन महाकुंभ केवल धार्मिक अनुष्ठान तक सीमित नहीं है, यह एक सांस्कृतिक एवं सामाजिक उत्सव भी है। यहाँ भारतीय परंपराओं, कला, व्यापार, और शिक्षा की झलक देखने को मिलती है। इस मेले की वैश्विक मान्यता का प्रमाण है कि वर्ष 2017 में दक्षिण कोरिया के जेजू में आयोजित यूनेस्को की ‘अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा के लिए अंतर-सरकारी समिति’ ने ‘कुंभ मेला’ को विश्व की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की प्रतिनिधि सूची में शामिल किया था। महाकुंभ केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता और सामाजिक संरचना का आईना है, जहाँ जाति, वर्ग और सम्प्रदाय से परे सभी को समान दृष्टि से देखा जाता है। सांप्रदायिकता के आरोप निराधार, महाकुंभ का द्वार सबके लिए खुला हाल ही में कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा यह अफवाह फैलाई जा रही है कि महाकुंभ मेले में मुसलमानों का प्रवेश प्रतिबंधित है, जो पूर्णतः असत्य और समाज में फूट डालने की एक कोशिश मात्र है। महाकुंभ मेला कभी भी किसी जाति, वर्ग या धर्म के लिए निषिद्ध नहीं रहा है। यहाँ सभी समुदायों के लोग आ सकते हैं, बशर्ते वे मेले की परंपराओं और धार्मिक आस्थाओं का सम्मान करें। एक महत्वपूर्ण तुलना हज यात्रा से की जा सकती है। हज मुस्लिम समुदाय का एक प्रमुख धार्मिक आयोजन है, जिसमें केवल मुसलमानों को ही प्रवेश की अनुमति होती है, और इस धार्मिक विशिष्टता को वैश्विक स्तर पर सम्मान दिया जाता है। इसके विपरीत, महाकुंभ में ऐसी कोई धार्मिक पाबंदी नहीं है, और अन्य धर्मों के अनुयायियों का भी स्वागत है। फिर भी, कुछ लोग महाकुंभ को एक सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास कर रहे हैं, जो भारत की सद्भावना और धार्मिक सहिष्णुता की मूल भावना का अपमान है। sporadic घटनाओं को बहुसंख्यक विचारधारा के रूप में प्रस्तुत करना एक भ्रामक प्रचार से अधिक कुछ नहीं। विश्व का सबसे बड़ा आयोजन: प्रबंधन और प्रशासन की अद्भुत मिसाल महाकुंभ में अनुमानित 40 करोड़ से अधिक श्रद्धालु भाग लेंगे, जिससे यह विश्व का सबसे विशाल धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन बन जाता है। इतने बड़े स्तर पर आयोजन की सफलता सुनिश्चित करना सरकार, प्रशासन और स्वयंसेवकों के लिए एक अभूतपूर्व चुनौती है। इसके लिए एक अस्थायी टेंट सिटी बसाई जाती है, जिसमें सभी आवश्यक सुविधाएँ—स्वच्छता, पेयजल, चिकित्सा, सुरक्षा, परिवहन आदि का विशेष ध्यान रखा जाता है। अगर तुलना करें तो हज यात्रा में प्रतिवर्ष लगभग 40 लाख लोग भाग लेते हैं, जिसे आयोजित करना भी एक जटिल कार्य है। लेकिन कल्पना कीजिए कि महाकुंभ में इससे 100 गुना अधिक लोग एकत्र होते हैं, फिर भी प्रशासनिक कुशलता से इसका सफल आयोजन किया जाता है। इस आयोजन की सफलता भारत की प्रशासनिक क्षमता, प्रबंधन दक्षता और तकनीकी नवाचारों का प्रतीक है। इस बार के महाकुंभ में आधुनिक तकनीक का भी व्यापक रूप से उपयोग किया जा रहा है। ड्रोन कैमरों से सुरक्षा की निगरानी, पर्यावरण अनुकूल व्यवस्थाएँ, डिजिटल भुगतान की सुविधाएँ, और अत्याधुनिक आपातकालीन सेवाएँ इस आयोजन को और अधिक सुव्यवस्थित और सुरक्षित बना रही हैं। महाकुंभ: भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन महाकुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक शक्ति का एक वैश्विक मंच है। यह हमारी सामूहिक स्मृतियों और सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न अंग है। यह आयोजन न केवल भारत की धार्मिक विविधता को दर्शाता है, बल्कि हमारे समाज की सहिष्णुता, एकता और संगठित प्रशासनिक क्षमता को भी प्रदर्शित करता है। महाकुंभ एकता, आत्मचिंतन और हमारी सांस्कृतिक विरासत के प्रति गर्व का उत्सव है। हमें इसे राजनीति और संकीर्ण मानसिकता से दूर रखना चाहिए और इसकी वास्तविक भावना को समझना चाहिए। भारत ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि वह दुनिया के सबसे बड़े आयोजनों को कुशलतापूर्वक संभालने में सक्षम है। हमें इस महान उपलब्धि का सम्मान करना चाहिए और इसे भारत की समावेशी और सहिष्णु परंपराओं का प्रतीक मानते हुए गर्व महसूस करना चाहिए। आइए, हम सब मिलकर इस ऐतिहासिक आयोजन की पवित्रता बनाए रखें और इसे विश्वभर के लोगों के लिए चमत्कार और श्रद्धा का केंद्र बनाएं। महाकुंभ केवल हिंदुओं का नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीय समाज का गौरव है। एक संगठित राष्ट्र के रूप में, हमें इस अद्भुत उपलब्धि का उत्सव मनाना चाहिए और अपने बहुसांस्कृतिक समाज की शांति और परस्पर सम्मान की भावना को बनाए रखना चाहिए। (यह लेखक के निजी विचार हैं।लेखक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों,घटनाक्रम पर लेख करते हैं।)

43 साल बाद क्या मोदी की कुवैत यात्रा से भारत को फायदा हुआ ? भारत-कुवैत के सम्बन्ध की मजबूती क्यों है जरूरी? एक विश्लेषण

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निर्मल कुमार (लेखक सामाजिक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।ये उनके निजी विचार हैं।) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 21-22 दिसंबर, 2024 को कुवैत यात्रा ने भारत और कुवैत के बीच संबंधों में एक ऐतिहासिक उपलब्धि दर्ज की। यह यात्रा पिछले 43 वर्षों में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की कुवैत की पहली यात्रा थी, इससे पहले इंदिरा गांधी ने 1981 में कुवैत का दौरा किया था। इस यात्रा ने भारत-कुवैत संबंधों को रणनीतिक साझेदारी के स्तर तक बढ़ा दिया, जो पश्चिम एशिया में भारत की बढ़ती भूमिका और क्षेत्र में उसकी सक्रिय कूटनीति को दर्शाता है। इस लेख में यात्रा की प्रमुख उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया है और इसे भारत की व्यापक पश्चिम एशिया नीति के संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है। रणनीतिक साझेदारी का गठन: एक ऐतिहासिक कदम प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक थी भारत-कुवैत संबंधों को “रणनीतिक साझेदारी” के स्तर तक ले जाना। यह कदम व्यापार, निवेश, रक्षा, ऊर्जा और सांस्कृतिक आदान-प्रदान जैसे प्रमुख क्षेत्रों में व्यापक और संरचित सहयोग की प्रतिबद्धता का प्रतीक है। ऐतिहासिक रूप से, भारत और कुवैत के बीच व्यापार और सांस्कृतिक संबंधों की जड़ें सदियों पुरानी हैं। रणनीतिक साझेदारी का गठन इस ऐतिहासिक संबंध को औपचारिक रूप देता है और वैश्विक और क्षेत्रीय चुनौतियों से निपटने के लिए समकालीन उपाय प्रदान करता है। इस साझेदारी को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए दोनों देशों ने संयुक्त सहयोग आयोग (Joint Commission on Cooperation – JCC) की स्थापना की। यह आयोग दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के नेतृत्व में कार्य करेगा और विभिन्न क्षेत्रों में रणनीतिक दिशा-निर्देश प्रदान करेगा। JCC का गठन इस बात का प्रतीक है कि भारत और कुवैत दीर्घकालिक और सतत सहयोग के लिए प्रतिबद्ध हैं। व्यापार और निवेश: नए अवसरों की खोज भारत और कुवैत के बीच व्यापार लंबे समय से दोनों देशों के संबंधों का प्रमुख आधार रहा है। पीएम मोदी की यात्रा के दौरान, व्यापार और निवेश के क्षेत्रों में विविधता और विकास की संभावनाओं पर जोर दिया गया। कुवैत ने भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में निवेश के लिए विशेष रुचि दिखाई। तकनीक, स्वास्थ्य, पर्यटन, खाद्य सुरक्षा और लॉजिस्टिक्स जैसे क्षेत्रों को आपसी सहयोग के लिए प्राथमिकता दी गई। कुवैत का सॉवरेन वेल्थ फंड, जो दुनिया में सबसे बड़ा है, भारत के बुनियादी ढांचे और अन्य रणनीतिक क्षेत्रों में परिवर्तनकारी भूमिका निभा सकता है। साथ ही, व्यवसायों के बीच बातचीत तेज करने और निवेश प्रक्रियाओं को सरल बनाने पर भी सहमति हुई। ऊर्जा सहयोग का विस्तार भारत और कुवैत के बीच ऊर्जा संबंध लंबे समय से महत्वपूर्ण रहे हैं। कुवैत भारत के लिए कच्चे तेल के प्रमुख आपूर्तिकर्ताओं में से एक है। इस यात्रा ने ऊर्जा सहयोग को पारंपरिक खरीदार-विक्रेता संबंध से आगे बढ़ाकर व्यापक ऊर्जा साझेदारी का रूप दिया। भारत और कुवैत ने अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम क्षेत्रों, नवीकरणीय ऊर्जा और भारत के स्ट्रैटेजिक पेट्रोलियम रिज़र्व प्रोग्राम में सहयोग पर सहमति जताई। कुवैत का अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) में शामिल होना टिकाऊ ऊर्जा समाधानों को बढ़ावा देने की दिशा में एक बड़ा कदम है। दोनों देशों ने सौर ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देने और कार्बन उत्सर्जन में कमी के लिए सहयोग करने का वादा किया। यह भारत की नवीकरणीय ऊर्जा पर जोर देने और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक नेतृत्व के अनुरूप है। रक्षा और सुरक्षा: सहयोग का नया आयाम यात्रा के दौरान, रक्षा सहयोग पर हस्ताक्षर किए गए समझौता ज्ञापन (MoU) को एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना गया। इस समझौते में संयुक्त सैन्य अभ्यास, प्रशिक्षण, तटीय रक्षा, समुद्री सुरक्षा और रक्षा उपकरणों के संयुक्त विकास और उत्पादन पर सहयोग की रूपरेखा तैयार की गई। सुरक्षा के क्षेत्र में, दोनों देशों ने सभी प्रकार के आतंकवाद की निंदा की, जिसमें सीमा-पार आतंकवाद भी शामिल है। उन्होंने आतंकवाद वित्तपोषण नेटवर्क को बाधित करने, आतंकवादी ढांचे को खत्म करने और साइबर सुरक्षा व अंतरराष्ट्रीय अपराधों से निपटने के लिए सहयोग बढ़ाने पर सहमति जताई। यह क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा चुनौतियों का समाधान करने के लिए एक साझा प्रतिबद्धता को दर्शाता है। भारतीय प्रवासी और सांस्कृतिक संबंध कुवैत में 10 लाख से अधिक भारतीय प्रवासी रहते हैं, जो दोनों देशों के संबंधों को मजबूती प्रदान करते हैं। पीएम मोदी ने भारतीय समुदाय की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करते हुए उनके योगदान की सराहना की। 2025-2029 के लिए सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम (CEP) और 2025-2028 के लिए खेलों पर कार्यकारी कार्यक्रम पर हस्ताक्षर किए गए। शिक्षा और कौशल विकास के क्षेत्र में भी सहयोग को गहरा करने पर जोर दिया गया। दोनों देशों ने ऑनलाइन लर्निंग प्लेटफॉर्म को बढ़ावा देने और शैक्षिक बुनियादी ढांचे को आधुनिक बनाने की दिशा में प्रयास तेज करने का संकल्प लिया। भारत की पश्चिम एशिया रणनीति में कुवैत की भूमिका कुवैत यात्रा को भारत की व्यापक पश्चिम एशिया नीति के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। यह क्षेत्र भारत के लिए ऊर्जा जरूरतों, व्यापार मार्गों और बड़ी भारतीय प्रवासी आबादी के कारण रणनीतिक महत्व रखता है। भारत ने खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) के देशों के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने के लिए सक्रिय कूटनीति अपनाई है। कुवैत, वर्तमान में GCC का अध्यक्ष होने के नाते, भारत-GCC सहयोग को गहरा करने का एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। दोनों पक्षों ने भारत-GCC मुक्त व्यापार समझौते (FTA) को शीघ्र पूरा करने पर जोर दिया। यह न केवल व्यापार और निवेश को बढ़ावा देगा बल्कि क्षेत्र में भारत की भूमिका को और मजबूत करेगा। बहुपक्षीय सहयोग और वैश्विक शासन सुधार भारत और कुवैत ने एक प्रभावी बहुपक्षीय प्रणाली के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई, जिसमें संयुक्त राष्ट्र में सुधार भी शामिल है। दोनों देशों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को अधिक प्रतिनिधि और समकालीन वास्तविकताओं का प्रतिबिंबित करने वाला बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। यह भारत के लंबे समय से चले आ रहे एक समान और न्यायसंगत वैश्विक शासन प्रणाली के समर्थन के अनुरूप है। प्रधानमंत्री मोदी की कुवैत यात्रा भारत की पश्चिम एशिया में बढ़ती रणनीतिक उपस्थिति का प्रमाण है। इस यात्रा ने न केवल द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत किया बल्कि भारत को क्षेत्रीय और वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में प्रस्तुत किया। आर्थिक सहयोग, ऊर्जा सुरक्षा, रक्षा साझेदारी और सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर केंद्रित यह यात्रा दोनों … Read more

लेख : सीरिया संकट और इस्लामिक स्टेट: सतर्कता, समझदारी और जिम्मेदार दृष्टिकोण की आवश्यकता

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सीरिया में हुए तख्तापलट से उपजे हालात का आतंकवादी समूह अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए एक बड़ा झूठ फैला रहे हैं। सामाजिक व धार्मिक मामलों के जानकार निर्मल कुमार ने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। सीरिया में हाल ही में हुए राजनीतिक और सैन्य घटनाक्रमों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गहरी चिंता पैदा कर दी है। 8 दिसंबर 2024 को विद्रोही गुटों ने राष्ट्रपति बशर अल-असद के 24 वर्षीय शासन को समाप्त कर दिया, जिससे उन्हें देश छोड़कर रूस भागने पर मजबूर होना पड़ा। इस तख्तापलट के बाद, हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएस) विद्रोही गुट ने मोहम्मद अल-बशीर को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किया। हालांकि, इस राजनीतिक बदलाव के बीच सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि कुछ कट्टरपंथी गुट इस घटनाक्रम को इस्लामिक स्टेट (ISIS) की जीत के रूप में चित्रित कर रहे हैं। वे इसे एक दिव्य अभियान का हिस्सा बताकर मध्य एशिया और अन्य क्षेत्रों के मुस्लिम युवाओं को अपने साथ जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। कट्टरपंथी प्रचार और वास्तविकता का अंतर कट्टरपंथी प्रचारकों द्वारा प्रस्तुत की जा रही यह व्याख्या न केवल भ्रामक है, बल्कि खतरनाक भी है। वे “इस्लामिक शासन” और “खिलाफत” की अवधारणाओं को तोड़-मरोड़कर युवाओं के बीच झूठा नैरेटिव गढ़ रहे हैं। यह प्रचार तंत्र युवाओं की धार्मिक भावनाओं को भड़काने और उन्हें हिंसा के मार्ग पर ले जाने के लिए तैयार किया गया है। वास्तव में, सीरियाई संघर्ष एक बहुआयामी समस्या है, जिसमें कई गुट सत्ता, प्रभाव और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ISIS जैसे चरमपंथी समूह इस संघर्ष को अपने “खिलाफत” के पुनर्जन्म के रूप में दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। वे इसे एक धार्मिक युद्ध के रूप में प्रचारित करते हैं, जबकि उनकी गतिविधियाँ इस्लाम के मूल सिद्धांतों के विपरीत हैं। यह एक वैचारिक जाल है, जो अंततः विनाश, मौत और पीड़ा की ओर ले जाता है। इस्लामी शासन और ‘खिलाफत’ की सच्ची अवधारणा “इस्लामी शासन” और “खिलाफत” की अवधारणा इस्लामी न्याय, परामर्श (शूरा), सहिष्णुता और करुणा पर आधारित है। इस्लामी परंपरा में शूरा का विशेष महत्व है, जिसमें शासक और जनता के बीच विचार-विमर्श होता है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक प्रारंभिक स्वरूप है। ISIS द्वारा स्थापित तथाकथित “इस्लामिक स्टेट” एक आतंकवादी ढांचा था, जिसने इस्लामी सिद्धांतों का गंभीर उल्लंघन किया। उनका शासन अत्याचार, उत्पीड़न और हिंसा पर आधारित था। न्याय, दया और मानव गरिमा जैसे मूल इस्लामी सिद्धांतों को उन्होंने अपने राजनीतिक एजेंडे की पूर्ति के लिए तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया। इसके विपरीत, इस्लामी इतिहास में वास्तविक जिहाद का अर्थ है – व्यक्तिगत सुधार, समाज में न्याय की स्थापना और मानवता की सेवा। जिहाद कभी भी आतंकवाद, हिंसा या निर्दोष लोगों की हत्या को सही नहीं ठहराता। यह शिक्षा, दान, शांतिपूर्ण प्रतिरोध और न्याय के लिए प्रयास करने के रूप में प्रकट होता है। सीरियाई संघर्ष: चरमपंथी समूहों का एजेंडा वर्तमान सीरियाई घटनाक्रम को कुछ कट्टरपंथी गुट “खिलाफत” की स्थापना के प्रयास के रूप में चित्रित कर रहे हैं। वे जिहाद और खिलाफत जैसे पवित्र शब्दों का दुरुपयोग कर युवाओं को अपने जाल में फंसाने का प्रयास कर रहे हैं। इस्लामी शिक्षाओं को विकृत करके, वे ऐसे नैरेटिव गढ़ रहे हैं जो हिंसा और अराजकता को बढ़ावा देते हैं। इन समूहों का मुख्य उद्देश्य मुस्लिम युवाओं की धार्मिक भावनाओं का दोहन करना और उन्हें अपने हिंसक अभियानों का हिस्सा बनाना है। यह एक वैचारिक जाल है, जो अंततः विनाश, मौत और पीड़ा की ओर ले जाता है। युवाओं को शिक्षित और सतर्क रहना होगा मुस्लिम युवाओं को इन कट्टरपंथी गुटों के झूठे प्रचार से सावधान रहना होगा। उन्हें इस्लामी शिक्षाओं का सही अर्थ समझने के लिए विद्वानों और धार्मिक विशेषज्ञों से मार्गदर्शन लेना चाहिए। इस्लाम शिक्षा, करुणा, मानवता और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित धर्म है। युवाओं को यह समझना होगा कि ISIS और अन्य चरमपंथी गुट इस्लाम के सच्चे सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। इस्लाम में किसी निर्दोष व्यक्ति की हत्या को गंभीर पाप माना गया है। कुरान कहता है: “जिसने किसी निर्दोष की हत्या की, उसने संपूर्ण मानवता की हत्या की।” (सूरह अल-मायदा: 5:32) समाज और नेतृत्व की भूमिका • धार्मिक नेताओं को कट्टरपंथ के खिलाफ स्पष्ट और प्रभावी बयान देने होंगे। • माता-पिता और शिक्षकों को युवाओं को चरमपंथी विचारधारा से दूर रखने के लिए शिक्षित और मार्गदर्शन करना होगा। • सरकारों को कट्टरपंथ को रोकने के लिए ठोस नीतियाँ अपनानी होंगी। • शिक्षण संस्थानों में सहिष्णुता, शांति और संवाद को बढ़ावा देना होगा। इस्लाम: शांति और न्याय का धर्म इस्लाम ने हमेशा ज्ञान, शांति और सहिष्णुता को प्राथमिकता दी है। इस्लामी इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब मुसलमानों ने अत्यंत कठिन परिस्थितियों में भी न्याय, करुणा और सह-अस्तित्व के सिद्धांतों को बनाए रखा। युवाओं को यह समझना होगा कि इस्लाम का सच्चा अनुसरण शिक्षा, सेवा, और सामाजिक सुधार के माध्यम से किया जाता है। यह हिंसा, रक्तपात या नफरत के माध्यम से संभव नहीं है। ऐसे में समझने की जरूरत है कि सीरिया में हालिया राजनीतिक परिवर्तन को ISIS की जीत के रूप में प्रचारित करना एक खतरनाक झूठ है। मुस्लिम युवाओं को इस दुष्प्रचार से सतर्क रहना चाहिए और इस्लाम की सच्ची शिक्षाओं को अपनाना चाहिए। आतंकवाद, हिंसा और चरमपंथ इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ हैं। यह प्रत्येक मुस्लिम की जिम्मेदारी है कि वह ज्ञान, शांति और न्याय के मार्ग पर चले। कुरान और पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षाओं के आधार पर, हमें एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए, जो करुणा, सहिष्णुता और मानवता के मूल्यों पर आधारित हो। (यह लेख निर्मल कुमार के निजी विचार हैं।)

धार्मिक स्थलों पर विवाद को बढ़ावा देना भारत की एकता के लिए हानिकारक है – मोहन भागवत

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(निर्मल कुमार की कलम से) नई दिल्ली,03 जनवरी 2025:   स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में पुणे में दिए गए एक प्रभावशाली भाषण में देशवासियों से आग्रह किया कि वे विभाजनकारी बयानों को नकारें और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को अपनाएं। ‘विश्वगुरु भारत’ शीर्षक से आयोजित व्याख्यान श्रृंखला के दौरान उन्होंने कहा कि भारत को दुनिया के सामने यह उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए कि कैसे विभिन्न धर्म और विचारधाराएं आपस में सौहार्दपूर्वक रह सकती हैं। उत्तर प्रदेश के संभल में स्थित शाही जामा मस्जिद और राजस्थान के अजमेर शरीफ जैसे धार्मिक स्थलों को लेकर उभरे विवादों का संदर्भ देते हुए भागवत ने कहा कि धार्मिक स्थलों पर विवादों को बढ़ावा देना भारत की एकता के लिए हानिकारक है। उन्होंने कहा, “नफरत और दुश्मनी के आधार पर नए मुद्दे उठाना अस्वीकार्य है। हमें इतिहास से सीख लेनी चाहिए और उन गलतियों को दोहराने से बचना चाहिए, जिन्होंने समाज में विघटन को बढ़ावा दिया है।” विकास और एकता के बीच संतुलन आवश्यक भारत इस समय विकास और विश्व नेतृत्व के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। ऐसे में यह आवश्यक है कि देश अपनी महत्वाकांक्षाओं और आंतरिक असमानताओं के बीच संतुलन स्थापित करे। भागवत ने स्पष्ट किया कि राम मंदिर का मामला एक लंबे समय से हिंदू आस्था से जुड़ा मुद्दा था, जबकि वर्तमान में उठाए जा रहे अन्य धार्मिक स्थलों के विवाद अधिकतर नफरत और वैमनस्य से प्रेरित हैं। उन्होंने चेतावनी दी कि ऐसे मुद्दों को उठाने से न केवल धार्मिक समुदायों के बीच दरार पैदा होती है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को भी नुकसान पहुंचता है। उन्होंने कहा कि भारत का गौरवशाली अतीत हमेशा से समावेशिता, सहिष्णुता और विभिन्न विचारधाराओं के प्रति सम्मान का समर्थक रहा है। भारत ने अपनी प्राचीन परंपराओं के माध्यम से कट्टरता, आक्रामकता और बहुसंख्यकवाद जैसे विचारों को नियंत्रित किया है। भागवत ने दोहराया कि किसी को भी श्रेष्ठता का दावा नहीं करना चाहिए, बल्कि भारत के सहिष्णु अतीत से प्रेरणा लेकर सभी धर्मों को, विशेषकर अल्पसंख्यकों को, उनके लिए उचित स्थान और सम्मान देना चाहिए। “हर व्यक्ति को अपने विश्वास और पूजा-पद्धति का पालन करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।” भारत की ताकत: बहुलतावाद और समावेशिता भारत की ताकत इसकी बहुलतावादी संस्कृति में निहित है, जिसने सदियों से देश को विभिन्न धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों के संगम स्थल के रूप में फलने-फूलने का अवसर दिया है। उन्होंने कहा कि भारत की पहचान बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक जैसे द्वैत से परे है। जब हर व्यक्ति भारत की समग्र पहचान को समझेगा, तब बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की सोच स्वतः समाप्त हो जाएगी। “हम सब एक हैं” का विचार तब एक वास्तविकता बन जाएगा। भागवत ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को भय और पूर्वाग्रह से मुक्त होकर अपने धर्म का पालन करने का अधिकार होना चाहिए। भारत का संविधान भी समानता और धार्मिक स्वतंत्रता का समर्थन करता है, और यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम इन सिद्धांतों का पालन करें। हिंदू-मुस्लिम एकता और संवाद की आवश्यकता देश में बढ़ते विभाजनकारी माहौल को देखते हुए हिंदू-मुस्लिम एकता और समाज में सद्भावना को बढ़ावा देने की तत्काल आवश्यकता है। भागवत ने कहा कि दोनों समुदायों को समानताओं को प्राथमिकता देनी चाहिए और मतभेदों को दूर करने के लिए संवाद और सहयोग का रास्ता अपनाना चाहिए। सोशल मीडिया के दौर में, जहां विभाजनकारी विचार तेजी से फैलते हैं, संयम और समझदारी आवश्यक है। उकसाने वाले बयानों को खारिज करना और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के प्रति प्रतिबद्धता बनाए रखना, सामूहिक प्रयासों के मुख्य स्तंभ होने चाहिए। शिक्षा और धार्मिक नेतृत्व की भूमिका भागवत ने धार्मिक नेताओं और समुदाय के प्रभावशाली व्यक्तियों की भूमिका पर भी जोर दिया। उन्होंने कहा कि धार्मिक नेता संवाद और मेल-मिलाप को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके अलावा, शैक्षणिक संस्थानों को भी छात्रों में सहिष्णुता, करुणा और आपसी सम्मान जैसे मूल्यों को विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए। भारत: विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर भागवत ने कहा कि दुनिया भारत की ओर देख रही है, और हमें एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए, जिससे यह सिद्ध हो कि धार्मिक और वैचारिक विविधता संघर्ष का कारण नहीं, बल्कि शक्ति का स्रोत हो सकती है। यदि भारत आंतरिक मतभेदों को सुलझाकर अपनी एकता को मजबूत करता है, तो वह वैश्विक स्तर पर नेतृत्व कर सकता है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यह लक्ष्य केवल सरकार या किसी एक संगठन की जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह प्रत्येक भारतीय नागरिक, समुदाय और संस्था का दायित्व है। उन्होंने कहा, “हर व्यक्ति को अपने विश्वास और पूजा-पद्धति का पालन करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।” भागवत का भाषण न केवल भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करने का आह्वान है, बल्कि यह देशवासियों के लिए एक चेतावनी भी है कि वे विभाजनकारी विचारधाराओं से दूर रहें। यह भाषण भारत के लिए एक दिशा-निर्देश है कि वह अपनी सहिष्णुता और बहुलतावादी परंपराओं के आधार पर विश्वगुरु बनने की अपनी यात्रा को जारी रखे।

सार्वजनिक स्थान और धार्मिक भवन: एक इस्लामी नैतिक दृष्टिकोण

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(निर्मल कुमार) इस्लाम एक ऐसा जीवन दृष्टिकोण प्रदान करता है जो समानता, न्याय और नैतिक मूल्यों पर आधारित है। यह न केवल व्यक्तिगत बल्कि सामूहिक अधिकारों की रक्षा के लिए भी कठोर सिद्धांत निर्धारित करता है। सार्वजनिक स्थानों और धार्मिक भवनों के संदर्भ में इस्लामी शिक्षाएँ स्पष्ट रूप से यह बताती हैं कि किसी भी प्रकार की सरकारी या सार्वजनिक भूमि पर अवैध कब्जा करना, चाहे वह व्यक्तिगत लाभ के लिए हो या किसी समूह के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, इस्लाम में पूरी तरह निषिद्ध है। सड़कें, मैदान, और अन्य सार्वजनिक स्थल समाज की सामूहिक भलाई के लिए हैं, और इनका दुरुपयोग समाज के संतुलन और इस्लामी नैतिकता को नुकसान पहुँचाता है। सरकारी भूमि: पवित्र अमानत और उसका महत्व इस्लाम में सरकारी भूमि को एक पवित्र अमानत माना गया है। इसका सीधा अर्थ है कि यह भूमि न केवल वर्तमान समाज की जरूरतों के लिए है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के कल्याण के लिए भी है। कुरआन और हदीस में स्पष्ट रूप से उन लोगों की निंदा की गई है जो दूसरों की संपत्ति, चाहे वह निजी हो या सार्वजनिक, पर अनुचित रूप से कब्जा करते हैं। अल्लाह ने कुरआन में ऐसे कार्यों को गुनाह बताया है: “और तुम आपस में एक-दूसरे का माल अन्यायपूर्वक न खाया करो, और न ही इसे रिश्वत के रूप में शासकों को दिया करो ताकि तुम दूसरों की संपत्ति को अवैध रूप से हड़प सको।” (कुरआन 2:188) सरकारी या सार्वजनिक भूमि का किसी भी प्रकार का अवैध उपयोग इस्लाम की मूल शिक्षाओं के खिलाफ है। यह भूमि समाज के हित और विकास के लिए समर्पित होती है। इसलिए, किसी भी प्रकार का व्यक्तिगत या सामूहिक लाभ उठाने के लिए इस भूमि पर कब्जा करना न केवल सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है, बल्कि यह ईश्वरीय आदेशों के भी खिलाफ है। धार्मिक भवनों का निर्माण और उनका नैतिक आधार मस्जिदें और अन्य धार्मिक भवन इस्लामिक समाज के लिए महत्वपूर्ण केंद्र होते हैं। इनका उद्देश्य लोगों को नैतिकता, प्रेम, और भाईचारे का संदेश देना है। लेकिन इन भवनों का निर्माण केवल वैध और न्यायसंगत तरीके से किया जा सकता है। अवैध रूप से कब्जा की गई भूमि पर मस्जिद या अन्य धार्मिक संरचना बनाना इस्लामी सिद्धांतों के विरुद्ध है। कुरआन और पैगंबर मुहम्मद (स.अ.व.) की शिक्षा में इस बात पर जोर दिया गया है कि धार्मिक स्थलों को केवल न्यायोचित आधार पर ही बनाया जाना चाहिए। इस संदर्भ में, मदीना में “मस्जिदे-ज़िरार” का उदाहरण महत्वपूर्ण है। यह मस्जिद उन लोगों द्वारा बनाई गई थी जो मुसलमानों के बीच फूट डालना और समाज में अशांति फैलाना चाहते थे। अल्लाह ने स्पष्ट आदेश दिया कि इसे ध्वस्त कर दिया जाए, और यह आदेश कुरआन की निम्न आयतों में दिया गया: “और जो लोग नुकसान पहुँचाने, कुफ्र फैलाने और मोमिनों के बीच फूट डालने के लिए एक मस्जिद बनाते हैं, उनकी बुनियाद शुरू से ही गलत है।” (कुरआन 9:107-110) यह घटना स्पष्ट रूप से दिखाती है कि किसी भी धार्मिक स्थल की नींव तभी वैध मानी जाएगी जब वह भूमि न्यायसंगत और वैध तरीके से प्राप्त की गई हो। इस्लामी विद्वानों ने इस पर सहमति व्यक्त की है कि अवैध रूप से अधिग्रहीत भूमि पर बनाए गए धार्मिक भवन में की गई उपासना स्वीकार्य नहीं होती। अवैध कब्जा न केवल इस्लामी नियमों का उल्लंघन है, बल्कि यह समाज के सामूहिक कल्याण और एकता को भी क्षति पहुँचाता है। अवैध रूप से अधिग्रहीत भूमि का उपयोग, चाहे वह धार्मिक हो या अन्य किसी उद्देश्य के लिए, समाज में अशांति, अविश्वास, और विघटन को बढ़ावा देता है। यह अल्लाह की दी हुई अमानत का दुरुपयोग है, जो हर मुसलमान का कर्तव्य है कि वह इसे संरक्षित रखे। हज़रत अबू बक्र (र.अ.) की एक घटना इस्लामी नैतिकता के उच्च मानदंड को दर्शाती है। एक बार उन्होंने वह भोजन त्याग दिया जो अनुचित तरीके से अर्जित किया गया था, यह समझते हुए कि किसी भी प्रकार का अवैध लाभ स्वीकार्य नहीं है। इसी प्रकार, यदि भूमि या अन्य संपत्ति अवैध तरीके से प्राप्त की गई हो, तो इसे तत्काल त्याग देना इस्लाम की नैतिकता और न्याय का हिस्सा है। इस्लाम में सार्वजनिक भूमि को समाज के हित के लिए उपयोग करने की अनुमति दी गई है। इसका उपयोग केवल उन कार्यों के लिए किया जाना चाहिए जो सामूहिक लाभ और न्याय को बढ़ावा दें। अवैध कब्जा, चाहे वह किसी भी कारण से हो, इस्लामी शिक्षाओं के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। सार्वजनिक स्थान जैसे सड़कें, मैदान, और अन्य स्थल समाज की साझा संपत्ति हैं। इनका अवैध उपयोग न केवल इनकी उपयोगिता को नष्ट करता है, बल्कि यह सामाजिक संरचना को भी प्रभावित करता है। इस्लाम का दृष्टिकोण यह सुनिश्चित करता है कि सरकारी और सार्वजनिक भूमि का उपयोग केवल वैध और नैतिक उद्देश्यों के लिए किया जाए। किसी भी प्रकार का अवैध कब्जा या अनुचित उपयोग इस्लामी सिद्धांतों और सामाजिक नैतिकता दोनों के खिलाफ है। सभी का यह कर्तव्य है कि वे सार्वजनिक स्थानों और धार्मिक स्थलों को न्याय, समानता और नैतिकता के इस्लामी आदर्शों के अनुरूप बनाए रखें। इस प्रकार, इन स्थलों को न केवल पवित्र और सम्मानित रखा जा सकता है, बल्कि समाज में प्रेम और सौहार्द को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। (लेखक निर्मल कुमार समाजिक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।यह उनकी निजी राय है।)

संविधान की छत्रछाया में मदरसा शिक्षा: न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला, मुस्लिम समुदाय के लिए शिक्षा का सुनहरा अवसर

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निर्मल कुमार (लेखक आर्थिक व सामाजिक मामलों के जानकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।) कोई भी कानून, सामाजिक पूर्वाग्रह, या राजनीतिक दबाव, संविधान के इस मूल अधिकार को कमजोर नहीं कर सकता। = सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐतिहासिक निर्णय में उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा अधिनियम, 2004 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्ववर्ती फैसले को खारिज कर दिया। यह अधिनियम उत्तर प्रदेश राज्य में मदरसों की स्थापना, मान्यता, पाठ्यक्रम और प्रशासन को नियंत्रित करने के लिए एक व्यापक कानूनी ढांचा प्रदान करता है। इस अधिनियम के तहत, मदरसों की निगरानी और प्रबंधन के लिए उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड की स्थापना की गई थी। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने इस निर्णय को सुनाते हुए कहा कि सरकार को मदरसा शिक्षा के लिए नियमन बनाने का अधिकार है और यह संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप है। इस निर्णय ने मुस्लिम समुदाय और मदरसा शिक्षा से जुड़े लोगों के बीच न्याय और समानता की भावना को प्रबल किया है। संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के तहत अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उन्हें स्वतंत्र रूप से संचालित करने का अधिकार दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस अधिकार की पुष्टि करता है और स्पष्ट करता है कि कोई भी कानून, सामाजिक पूर्वाग्रह, या राजनीतिक दबाव संविधान के इस मूल अधिकार को कमजोर नहीं कर सकता। यह निर्णय संविधान की सर्वोच्चता को एक बार फिर स्थापित करता है और भारत के लोकतंत्र के स्थायित्व को सुनिश्चित करता है। मदरसों की ऐतिहासिक भूमिका को समझने की आवश्यकता है। इन संस्थानों ने पारंपरिक धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाई है। हालांकि, वर्तमान युग में शिक्षा केवल धार्मिक या सांस्कृतिक संरक्षण तक सीमित नहीं है। इसे आधुनिक विज्ञान, प्रौद्योगिकी, गणित, चिकित्सा, और उद्यमिता जैसे क्षेत्रों के साथ जोड़ना समय की आवश्यकता है। यह कदम न केवल मदरसा शिक्षा को प्रासंगिक बनाएगा, बल्कि इसे समुदाय की सामाजिक-आर्थिक प्रगति के एक प्रभावी माध्यम में बदल देगा। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मुस्लिम समुदाय के लिए आत्मचिंतन और नवाचार का एक स्वर्णिम अवसर प्रदान करता है। इसे एक अवसर के रूप में लेते हुए, मदरसों को अब आधुनिक शिक्षण पद्धतियों, डिजिटल उपकरणों और कौशल विकास कार्यक्रमों को अपनाना चाहिए। मदरसों का पाठ्यक्रम इस प्रकार विकसित किया जाना चाहिए, जो छात्रों को धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ मुख्यधारा की शिक्षा में भी प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार कर सके। यह न केवल समुदाय के युवाओं को रोजगार के बेहतर अवसर देगा, बल्कि उन्हें समाज के विकास में सक्रिय योगदान देने में सक्षम बनाएगा। यह निर्णय उन संवैधानिक मूल्यों को भी मजबूत करता है जो भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला हैं। कानून के समक्ष समानता का सिद्धांत, जो अनुच्छेद 14 में निहित है, यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार किया जाए, चाहे उनकी धार्मिक, जातीय, या सांस्कृतिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो। इस फैसले ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि न्यायपालिका सामाजिक और राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर संविधान के प्रावधानों की रक्षा करती है। यह निर्णय अल्पसंख्यकों को यह भरोसा दिलाता है कि न्यायपालिका उनकी आवाज सुनने और उनके अधिकारों की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध है। मुस्लिम समुदाय को इस अवसर का उपयोग शिक्षा के माध्यम से अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए करना चाहिए। मदरसों को ऐसे केंद्रों में बदलना चाहिए, जो न केवल धार्मिक शिक्षा दें, बल्कि विज्ञान, गणित, प्रौद्योगिकी और भाषा जैसे विषयों में भी छात्रों को उत्कृष्टता प्रदान करें। विदेशी विश्वविद्यालयों के साथ साझेदारी, डिजिटल लर्निंग प्लेटफॉर्म, और अनुसंधान केंद्रों की स्थापना से मदरसा शिक्षा को एक नई दिशा दी जा सकती है। इसके साथ ही, लड़कियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है ताकि समाज का प्रत्येक वर्ग सशक्त हो सके। यह निर्णय न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह समाज के लिए एक प्रेरणास्रोत भी है। यह अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय, को यह समझने का अवसर देता है कि संविधान ही उनके अधिकारों का सबसे सशक्त संरक्षक है। इसके साथ ही, यह भी आवश्यक है कि समुदाय संविधान और न्यायिक प्रणाली पर अपना विश्वास बनाए रखे। यह निर्णय एक संदेश है कि केवल संविधान और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के माध्यम से ही सामाजिक न्याय और समरसता प्राप्त की जा सकती है। आज का यह फैसला न केवल मदरसा शिक्षा के संवैधानिक अधिकारों को सुदृढ़ करता है, बल्कि यह समुदाय को आत्मनिर्भर बनने और आधुनिक शिक्षा को अपनाने के लिए प्रेरित करता है। यह शिक्षा ही है जो किसी भी समुदाय को सामाजिक और आर्थिक समृद्धि की ओर ले जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय केवल न्यायालय के प्रति विश्वास को पुनः स्थापित नहीं करता, बल्कि यह एक प्रेरणा है कि शिक्षा के माध्यम से समाज के सभी वर्ग अपने अधिकारों का उपयोग कर सकते हैं। मुस्लिम समुदाय के लिए यह समय आत्मचिंतन और कार्य करने का है। उन्हें समझना होगा कि शिक्षा ही वह पुल है जो उन्हें पिछड़ेपन से प्रगति तक ले जा सकता है। यह निर्णय केवल मदरसों के लिए नहीं, बल्कि पूरे समुदाय के लिए एक दिशा-सूचक है। जब समुदाय अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझकर संविधान के साथ चलने का निर्णय करेगा, तभी सामाजिक न्याय और समृद्धि का सपना साकार होगा।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में मुस्लिम राष्ट्रवाद का दुष्प्रभाव: हिज्ब-उत-तहरीर

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निर्मल कुमार हिज्ब-उत-तहरीर (Hizb-ut-Tahrir) एक अंतरराष्ट्रीय इस्लामी संगठन है, जिसका उद्देश्य वैश्विक इस्लामी ख़िलाफ़त की स्थापना करना है। 1953 में फ़िलिस्तीन के तकीउद्दीन नबहानी द्वारा स्थापित इस संगठन का दावा है कि यह राजनीतिक और वैचारिक तरीकों से इस्लामी शासन स्थापित करेगा। हालाँकि, इसके उद्देश्यों और कार्यप्रणाली ने इसे दुनिया के कई देशों में विवादास्पद बना दिया है। भारत सहित कई देशों ने इसे सुरक्षा के लिए गंभीर ख़तरा मानते हुए प्रतिबंधित कर दिया है। हिज्ब-उत-तहरीर के भारत में सक्रिय होने की खबरों ने सुरक्षा एजेंसियों को सतर्क कर दिया है, और इसे हाल ही में भारत सरकार ने आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया। भारत में हिज्ब-उत-तहरीर की चुनौतियाँ हिज्ब-उत-तहरीर का वैचारिक उद्देश्य भारत की धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था के सीधे विरोध में है। यह संगठन संविधान को चुनौती देते हुए जिहाद के माध्यम से इस्लामी ख़िलाफ़त स्थापित करना चाहता है। भारत में सुरक्षा एजेंसियों ने हिज्ब-उत-तहरीर पर युवाओं को कट्टरपंथी बनाने और संविधान-विरोधी विचारधारा फैलाने का आरोप लगाया है। यह संगठन अपनी गुप्त गतिविधियों से समाज में विघटन और अलगाववाद को बढ़ावा देता है। इसके कार्य न केवल भारतीय संविधान बल्कि इस्लामी शिक्षाओं के भी विरुद्ध हैं। इस्लामी सिद्धांत और हिज्ब-उत-तहरीर की विचारधारा इस्लाम न्याय, शांति और व्यवस्था को प्राथमिकता देता है। पैगंबर मोहम्मद ने सामाजिक विघटन (फ़ितना) और अराजकता से बचने का संदेश दिया। किसी भी वैध इस्लामी शासन को सामुदायिक समर्थन और न्यायपूर्ण प्रक्रिया के माध्यम से स्थापित किया जाना चाहिए। बिना वैध प्रक्रिया के शासन का आह्वान करना इस्लामी शिक्षाओं के विरुद्ध है। हिज्ब-उत-तहरीर का विचारधारा के नाम पर युवाओं को उकसाना, अराजकता फैलाना और सामाजिक शांति को भंग करना, इस्लामी उसूलों के बिल्कुल विपरीत है। इस्लाम में व्यवस्था का महत्व सर्वोपरि है। यह समाज में एकता और न्याय सुनिश्चित करने पर बल देता है। पैगंबर ने स्पष्ट कहा है कि मुस्लिम समुदाय को स्थापित व्यवस्था के तहत शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में विश्वास रखना चाहिए। विद्रोह या अराजकता इस्लाम में निषिद्ध है क्योंकि यह समाज को विखंडित करता है और शांति को खतरे में डालता है। हिज्ब-उत-तहरीर जैसी विचारधाराएँ इन इस्लामी सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं और मुसलमानों को गुमराह करती हैं। मुस्लिम युवाओं पर हिज्ब-उत-तहरीर का प्रभाव हिज्ब-उत-तहरीर की सबसे चिंताजनक पहलुओं में से एक है युवा मुसलमानों को भ्रमित करना। एक काल्पनिक ख़िलाफ़त का वादा कर यह संगठन उन्हें कट्टरपंथ की ओर धकेलता है। कई बार युवा इसके प्रभाव में आकर ऐसी गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं जो भारतीय कानून के तहत अपराध हैं। परिणामस्वरूप, वे गिरफ़्तारी, जेल, और समाज से अलगाव का शिकार हो जाते हैं। उनका भविष्य, जो समाज और समुदाय के निर्माण में योगदान दे सकता था, कट्टरपंथ और अलगाव में उलझकर बर्बाद हो जाता है। यह जरूरी है कि मुस्लिम युवाओं को समझाया जाए कि इस्लाम न केवल शांति और न्याय का पैगाम देता है, बल्कि ऐसे कार्यों को भी मना करता है जो समाज में विघटन और अशांति फैलाते हैं। उन्हें यह भी बताया जाना चाहिए कि भारत का संविधान उनके अधिकारों की रक्षा करता है और उनके विकास के लिए अवसर प्रदान करता है। भारतीय लोकतंत्र और मुस्लिम समुदाय भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और समानता के सिद्धांतों पर आधारित है। यह सभी नागरिकों को उनके धर्म, जाति, या पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना समान अधिकार प्रदान करता है। मुस्लिम समुदाय, जो भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे का अभिन्न हिस्सा है, को यह समझना चाहिए कि संविधान उन्हें अपने धर्म का पालन करने, शिक्षा प्राप्त करने और राजनीतिक भागीदारी में शामिल होने की पूरी स्वतंत्रता देता है। हिज्ब-उत-तहरीर जैसी विभाजनकारी विचारधाराओं को खारिज करना और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में सक्रिय भागीदारी करना ही सही रास्ता है। इससे न केवल समुदाय का उत्थान होगा, बल्कि एक समावेशी और समृद्ध समाज का निर्माण भी संभव होगा। सामुदायिक नेतृत्व और सकारात्मक भूमिका मुस्लिम विद्वानों, नेताओं और सामाजिक संगठनों को चाहिए कि वे हिज्ब-उत-तहरीर जैसी गुमराह करने वाली विचारधाराओं के खिलाफ़ एकजुट होकर आवाज़ उठाएँ। उन्हें समुदाय को यह समझाना चाहिए कि इस्लामी मूल्यों के साथ-साथ भारत का संविधान भी उनके अधिकारों और न्याय की रक्षा करता है। युवाओं को यह दिशा दिखाने की आवश्यकता है कि उनके सपनों को साकार करने का रास्ता शिक्षा, कौशल विकास और सकारात्मक सामुदायिक भागीदारी में है, न कि कट्टरपंथी संगठनों के झूठे वादों में। भारत के लोकतंत्र में, हर नागरिक को समान अवसर और अधिकार प्राप्त हैं। यह संविधान के प्रति निष्ठा और समाज में न्यायपूर्ण भागीदारी के माध्यम से ही संभव है। करना ये चाहिए हिज्ब-उत-तहरीर जैसे संगठन भारत की शांति और प्रगति के लिए गंभीर खतरा हैं। उनका उद्देश्य न केवल संविधान और कानून के विरुद्ध है, बल्कि इस्लाम के मूलभूत सिद्धांतों का भी उल्लंघन करता है। मुस्लिम समुदाय को इन संगठनों से सतर्क रहते हुए संविधान और इस्लामी मूल्यों के प्रति अपनी निष्ठा बनाए रखनी चाहिए। शिक्षा, सामाजिक भागीदारी और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के माध्यम से ही समुदाय का उत्थान और देश का विकास संभव है। (लेखक आर्तिक सामाजिक मामलों के जानकार है।यह उनके निजी विचार हैं )

शिक्षा के माध्यम से सशक्तिकरण: मुस्लिम समुदाय के लिए स्वर्णिम युग का प्रारंभ

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निर्मल कुमार (लेखक आर्थिक,सामाजिक मामलों के स्तम्भकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।) हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय में अल्पसंख्यक समुदायों को अपने शैक्षिक संस्थान स्थापित करने और संचालित करने के संवैधानिक अधिकार को पुनः स्पष्ट और सुदृढ़ किया है। यह निर्णय भारतीय संविधान की मूल भावना और लोकतंत्र के तीन स्तंभों—कानून के समक्ष समानता, संवैधानिक सर्वोच्चता और अल्पसंख्यकों की जिम्मेदारी—का प्रभावशाली उदाहरण है। विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय के लिए, यह निर्णय शिक्षा के क्षेत्र में नए आयाम स्थापित करने और समाज के सर्वांगीण विकास में योगदान देने का एक अद्वितीय अवसर प्रदान करता है। यह ऐतिहासिक फैसला केवल संवैधानिक अधिकारों को स्थापित करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समुदाय को इस अधिकार का उपयोग करते हुए शिक्षा के माध्यम से अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने की प्रेरणा भी देता है। यह समय है कि मुस्लिम समुदाय, अपने इतिहास, वर्तमान और भविष्य की जरूरतों को समझते हुए, शिक्षा को अपनी प्राथमिकता बनाए और इसे सामाजिक सशक्तिकरण का सबसे प्रभावी साधन बनाए। शिक्षा किसी भी समाज की प्रगति और विकास का मूल मंत्र होती है। इतिहास गवाह है कि कोई भी समुदाय या राष्ट्र तब तक उन्नति नहीं कर सकता, जब तक उसके नागरिक शिक्षित न हों। मुस्लिम समुदाय के पास शिक्षा की समृद्ध परंपरा है। इतिहास में नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों से लेकर इस्लामी स्वर्ण युग के दौरान विज्ञान, चिकित्सा, गणित और खगोल विज्ञान में योगदान देने वाले मुस्लिम विद्वानों तक, शिक्षा की शक्ति ने हमेशा समाज को ऊंचाई प्रदान की है। आधुनिक भारत में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू), जामिया मिलिया इस्लामिया (जेएमआई) और अन्य संस्थान समुदाय के लिए गौरव का प्रतीक हैं। इन संस्थानों ने उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान करते हुए लाखों छात्रों को समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए तैयार किया है। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय इस परंपरा को और आगे बढ़ाने का अवसर प्रदान करता है। आज शिक्षा की भूमिका केवल साक्षरता तक सीमित नहीं है। यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का एक शक्तिशाली माध्यम बन चुकी है। मुस्लिम समुदाय को न केवल पारंपरिक विषयों बल्कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, चिकित्सा (STEM) और उद्यमिता जैसे आधुनिक क्षेत्रों में अधिक संस्थानों की स्थापना करनी चाहिए। उन्नत संस्थानों जैसे इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज, अनुसंधान केंद्र और प्रौद्योगिकी आधारित विश्वविद्यालयों का निर्माण समय की मांग है। महिला शिक्षा पर विशेष ध्यान देना भी आवश्यक है ताकि समाज के उस हिस्से को सशक्त किया जा सके जो किसी भी प्रगति में बराबर का योगदान दे सकता है। कौशल विकास केंद्र स्थापित करके युवाओं को रोजगार के लिए तैयार किया जा सकता है। मौजूदा विश्वविद्यालयों और स्कूलों को वैश्विक मानकों के अनुरूप आधुनिक बनाना अत्यंत आवश्यक है। अनुसंधान केंद्रों की स्थापना से छात्रों को नवीनतम तकनीकों और वैश्विक विकास से जोड़ा जा सकता है। भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों के साथ साझेदारी से छात्रों और शिक्षकों को अंतरराष्ट्रीय अनुभव और ज्ञान मिलेगा। आज के डिजिटल युग में, ऑनलाइन पाठ्यक्रम और डिजिटल शिक्षण उपकरण का उपयोग शिक्षा को और अधिक सुलभ और प्रभावशाली बना सकता है। आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों के लिए छात्रवृत्ति योजनाएं और शिक्षा ऋण की उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए। इससे यह गारंटी होगी कि किसी भी छात्र की शिक्षा आर्थिक सीमाओं के कारण बाधित न हो। शिक्षा के इस अभियान को सफल बनाने के लिए केवल समुदाय के नेता और बुद्धिजीवी ही नहीं, बल्कि हर व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। माता-पिता को अपने बच्चों, विशेष रूप से लड़कियों, की शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए। यह मानसिकता बदलनी होगी कि शिक्षा केवल नौकरी पाने का साधन है। शिक्षा बच्चों को आत्मनिर्भर, आत्मविश्वासी और समाज में सम्मानजनक स्थान प्रदान करती है। वहीं शिक्षकों को न केवल शिक्षण सामग्री पर ध्यान देना चाहिए, बल्कि छात्रों को नैतिक, सामाजिक और व्यावसायिक दृष्टिकोण से भी मजबूत बनाना चाहिए। सामुदायिक संगठन, गैर-सरकारी संस्थान (एनजीओ) और अन्य समूह कार्यशालाओं, करियर काउंसलिंग और कौशल विकास कार्यक्रम आयोजित कर सकते हैं। ये प्रयास छात्रों और उनके परिवारों को शिक्षा के महत्व और इसके लाभों से परिचित कराने में सहायक होंगे। शिक्षा का महत्व केवल व्यक्तिगत और सामुदायिक प्रगति तक सीमित नहीं है। यह राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता का भी साधन है। शिक्षित व्यक्ति अधिक सहिष्णु, विचारशील और समावेशी होता है। मुस्लिम समुदाय यदि शिक्षा को प्राथमिकता देता है, तो यह अन्य समुदायों के साथ संवाद और सहयोग के नए रास्ते खोलेगा। इसके अलावा, शिक्षा उन सामाजिक विभाजनों को भी कम कर सकती है, जो अक्सर गलतफहमियों और पूर्वाग्रहों के कारण उत्पन्न होते हैं। आज का यह निर्णय मुस्लिम समुदाय के लिए एक सुनहरा अवसर है। अब समय आ गया है कि समुदाय अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग करते हुए शिक्षा के क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करे। नए शैक्षिक संस्थानों की स्थापना, उच्च शिक्षा में अधिक भागीदारी, आधुनिक शिक्षा प्रणाली का विकास और महिला शिक्षा को प्राथमिकता देना—यह सब मिलकर समुदाय को न केवल प्रगति की ओर ले जाएगा, बल्कि इसे एक आत्मनिर्भर और सशक्त समूह में बदल देगा। यह निर्णय एक आह्वान है कि शिक्षा को सामाजिक और आर्थिक समानता प्राप्त करने का माध्यम बनाया जाए। यह केवल मुस्लिम समुदाय के विकास का मार्ग नहीं है, बल्कि पूरे देश के लिए एक प्रेरणा है। शिक्षा केवल भविष्य का निर्माण नहीं करती, यह समाज और राष्ट्र की आत्मा को आकार देती है। अब यह समुदाय पर निर्भर करता है कि वह इस अवसर का किस प्रकार उपयोग करता है। शिक्षा के माध्यम से न केवल अपनी पीढ़ियों का भविष्य संवारें, बल्कि भारत की समृद्धि और एकता में भी अपना योगदान दें।

गंगा-जमुनी तहज़ीब: भारतीय समाज में सद्भाव और एकता का प्रतीक

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निर्मल कुमार (लेखक अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक आर्थिक मुद्दों के जानकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।) उत्तरप्रदेश के बहराइच जिले में हाल ही में हुई सांप्रदायिक हिंसा ने एक बार फिर भारत की सामाजिक एकता की बुनियाद को चुनौती दी है। ये घटनाएं केवल कानून-व्यवस्था के लिए खतरा नहीं हैं, बल्कि उस साझा सांस्कृतिक विरासत के लिए भी खतरा हैं जिसने सदियों से भारत की पहचान को परिभाषित किया है। ऐसे समय में, हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों को अपने साझा अतीत को याद करते हुए उन मूल्यों को अपनाने की आवश्यकता है जिन्होंने कभी उन्हें एक-दूसरे से जोड़ा था। भारत का उपमहाद्वीप धार्मिक और सांस्कृतिक मेल-जोल की एक अनमोल धरोहर का घर है। विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा-जमुनी तहज़ीब की संस्कृति, जो हिंदू-मुस्लिम परंपराओं का अनोखा संगम है, इस साझी विरासत का प्रतीक है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जो चीजें हमें जोड़ती हैं, वे उन चीजों से कहीं अधिक मजबूत हैं जो हमें बांटती हैं। गंगा-जमुनी तहज़ीब वह भावना है जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों ने मिलकर पर्व-त्योहार मनाए, और एक-दूसरे के रीति-रिवाजों का सम्मान किया। दिवाली और ईद का मिलकर मनाना, सूफी संतों और भक्ति कवियों के प्रति साझा श्रद्धा, यह सब हमारी संस्कृति में पारस्परिक सम्मान और सह-अस्तित्व का प्रतीक हैं। यह सिर्फ एक साझा अतीत नहीं है बल्कि एक ऐसा भविष्य भी दर्शाता है जहां विविधता को बांटने का कारण नहीं बल्कि एकता का आधार माना जाए। सदियों से हिंदू और मुस्लिम समुदायों ने एक साथ रहते हुए भाषा, कला, संगीत, भोजन और जीवनशैली को साझा किया है। यह सांस्कृतिक मिलन इन दोनों समुदायों की समृद्धि का स्रोत रहा है और इस धरोहर को हमें हर हाल में संजोकर रखना चाहिए, चाहे हालात कैसे भी हों। धर्म के प्रति सम्मान: शांति और सद्भाव की बुनियाद है ऐसे कठिन समय में, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक-दूसरे के धार्मिक विश्वासों का सम्मान ही शांति और सामाजिक सौहार्द की बुनियाद है। मंदिरों और मस्जिदों के प्रति आदर, त्योहारों और रीति-रिवाजों का सम्मान, यही वह नींव है जो हमें एकजुट रखती है। सच्चा धर्म तभी होता है जब हम इस विविधता का सम्मान करें, इसे बांटने के साधन के रूप में नहीं बल्कि समाज को जोड़ने के एक सशक्त माध्यम के रूप में देखें। हिंदू और मुस्लिम समुदायों ने हमेशा एक-दूसरे की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में भाग लिया है। सूफी परंपराओं में हिंदू देवी-देवताओं का जिक्र और हिंदू मंदिरों में इस्लामी वास्तुकला का प्रभाव इस गहरी सांस्कृतिक बुनावट के जीवंत उदाहरण हैं। बहराइच, जो सूफी संत सैयद सालार मसूद गाज़ी से जुड़ा हुआ है, वहां इस साझी विरासत का विशेष महत्व है। लेकिन हाल की घटनाओं ने इस विरासत को चुनौती दी है। इस समय यह जरूरी है कि हम उन तत्वों से सावधान रहें जो नफरत और बंटवारे का खेल खेलते हैं। ये लोग, चाहे राजनीतिक स्वार्थ के लिए हों या कट्टरपंथी एजेंडा के लिए, समाज में विभाजन पैदा करके ही अपना लाभ देखते हैं। उनके नफरत भरे भाषण, अफवाहें और प्रचार केवल हिंसा को बढ़ावा देते हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में जहां सही-गलत जानकारी तेजी से फैलती है, यह जरूरी है कि हम इन कोशिशों को समझें और इनसे बचें। हमारी असली ताकत नफरत की इन आवाजों को अस्वीकार करने में है। हमें हिंसा के बजाय संवाद, सहानुभूति और समझ का रास्ता अपनाना चाहिए। इस हिंसा के बाद एक और जरूरी सबक यह है कि कानून पर भरोसा बनाए रखें। किसी भी सभ्य समाज में न्याय की प्राप्ति कानून के जरिए ही होनी चाहिए, न कि भीड़ के गुस्से से। भीड़तंत्र केवल अराजकता और विभाजन को गहरा करता है। भारत का न्यायिक तंत्र, हालांकि इसमें सुधार की गुंजाइश है, फिर भी सभी नागरिकों के लिए न्याय और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बना है। अगर हम हिंसा का रास्ता चुनते हैं, तो न केवल कानूनी प्रक्रिया कमजोर होती है, बल्कि समाज में अराजकता भी बढ़ती है। हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि वे कानून में भरोसा रखें और जहां जरूरी हो उसे सुधारने की दिशा में काम करें, न कि खुद कानून अपने हाथ में लें। जब हम कानूनी रास्ता अपनाते हैं, तो यह सुनिश्चित होता है कि किसी भी अपराध के लिए उचित न्याय मिले और हिंसा भड़काने वालों को सजा दी जाए। किसी भी शिकायत का समाधान हिंसा से करना किसी भी शांतिपूर्ण समाज का रास्ता नहीं है और न ही यह हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के मूल्यों का सही प्रतिनिधित्व करता है। बहराइच हिंसा के बाद, यह जरूरी है कि दोनों समुदाय न केवल घावों को भरें बल्कि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए भी एकजुट हों। गंगा-जमुनी तहज़ीब की धरोहर को केवल अतीत की याद के रूप में नहीं बल्कि एक जीवंत आदर्श के रूप में फिर से अपनाना जरूरी है जो हमारे वर्तमान और भविष्य को दिशा दे सके। दोनों धार्मिक समुदायों के नेताओं को संवाद के माध्यम से विश्वास का निर्माण करना चाहिए और अपने अनुयायियों को उन सांस्कृतिक धरोहरों की याद दिलानी चाहिए जो उन्हें जोड़ती हैं। नागरिक समाज, मीडिया और शैक्षिक संस्थानों को भी विभाजनकारी कथाओं का मुकाबला करने और एकता की कहानियों को बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जो चीजें हमें जोड़ती हैं, वे उन चीजों से कहीं अधिक मजबूत हैं जो हमें बांटती हैं। हिंदू और मुस्लिम समुदायों ने मिलकर सदियों में एक समृद्ध सांझा विरासत बनाई है और एक घटना या हिंसा का दौर इसे खत्म नहीं कर सकता। शांति, सम्मान और कानून पर भरोसे का रास्ता चुनकर हम न केवल अपने अतीत का सम्मान करते हैं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर भविष्य भी सुनिश्चित करते हैं। आज, गंगा-जमुनी तहज़ीब के मूल्यों को अपनाने और हमें बांटने की कोशिश करने वाली शक्तियों को अस्वीकार करने का समय है। (इस लेख में छपी तस्वीर गूगल से हैदराबाद खबर से ली गई है।ख़बर ज़नपक्ष आभार व्यक्त करता है।)

इंटरनेट के युग में मुस्लिम युवाओं के कट्टरपंथीकरण को रोकने में मुस्लिम धर्मगुरुओं की भूमिका

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 निर्मल कुमार (लेखक सामाजिक,आर्थिक मुद्दों के जानकार हैं।यह लेख उनके निजी विचार हैं।) आज इंटरनेट हमारी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन चुका है, जिससे हम न केवल सूचना प्राप्त करते हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। इसके जरिए लोग शिक्षा लेते हैं, संवाद करते हैं, और समाज का हिस्सा बनते हैं। हालांकि, सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने कई समस्याएं भी खड़ी की हैं। इनमें से एक गंभीर चुनौती है – इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से मुस्लिम युवाओं में कट्टरपंथ का प्रसार। कई अतिवादी संगठन जैसे इस्लामिक स्टेट (ISIS) और अल-कायदा ने इन प्लेटफार्मों का उपयोग कर युवा मुस्लिमों को अपने विचारों से आकर्षित किया है, जिससे वे हिंसक विचारधाराओं की ओर मुड़ जाते हैं। इन संगठनों ने धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग कर, इस्लाम के संदेशों को विकृत रूप में प्रस्तुत कर युवाओं को कट्टरपंथी बनने के लिए प्रेरित किया है। कट्टरपंथ का सामना करने में मुस्लिम धर्मगुरुओं का दायित्व इस चुनौतीपूर्ण स्थिति में मुस्लिम धर्मगुरुओं (उलेमा) और इस्लामी संगठनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। धर्मगुरुओं के पास वह धार्मिक ज्ञान और सामुदायिक प्रभाव होता है, जो युवाओं को सही राह दिखाने और कट्टरपंथी विचारधाराओं का मुकाबला करने के लिए आवश्यक है। उनके पास समुदाय के बीच एक ऐसा विश्वास है, जो युवाओं को सही संदेश देने में सहायक होता है। धर्मगुरुओं का सबसे प्रमुख कार्य यह है कि वे इस्लाम की उन अवधारणाओं की सही व्याख्या करें, जिन्हें आतंकवादी संगठन अपने उद्देश्य के लिए तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं। विशेषकर “जिहाद” और “शहादत” जैसे शब्दों का सही अर्थ सामने रखना जरूरी है। असल में, जिहाद का मतलब आत्म-सुधार और समाज की भलाई के लिए संघर्ष करना है, न कि हिंसा फैलाना। धर्मगुरु और इस्लामी विद्वान, कुरान के शांति, सहिष्णुता और आपसी भाईचारे के संदेशों को लोगों तक पहुंचाकर कट्टरपंथ का प्रभाव कम कर सकते हैं। इस्लाम का असली संदेश शांति, समानता और मानवता के प्रति प्रेम का है, जिसे कट्टरपंथी संगठन अपनी सुविधा अनुसार तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। धर्मगुरु कुरान की उस आयत पर विशेष जोर दे सकते हैं, जिसमें कहा गया है कि एक निर्दोष की हत्या पूरी मानवता की हत्या के समान है (कुरान 5:32)। साथ ही, वे पैगंबर मुहम्मद साहब के जीवन से जुड़े किस्सों का उदाहरण देकर भी दिखा सकते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में कितनी बार सहिष्णुता, दया और मानवता का संदेश दिया। सोशल मीडिया पर सकारात्मक संवाद की आवश्यकता धर्मगुरुओं को यह समझना चाहिए कि आज के युवा ज्यादातर सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर ही सक्रिय रहते हैं। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि धर्मगुरु और इस्लामी संगठन उन ऑनलाइन स्थानों पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराएं, जहां अतिवादी संगठन युवाओं को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। यदि हम कट्टरपंथ का मुकाबला करना चाहते हैं, तो सोशल मीडिया पर युवाओं के बीच धर्मगुरुओं की एक सक्रिय उपस्थिति होनी चाहिए। इसके लिए धर्मगुरुओं को छोटे वीडियो, ब्लॉग, इन्फोग्राफिक्स और अन्य डिजिटल सामग्री बनानी चाहिए जो इस्लाम के वास्तविक संदेश को सरल और आकर्षक तरीके से युवाओं के सामने रखे। दुनियाभर में कई सफल प्रयास हो चुके हैं, जहां डिजिटल प्लेटफार्म का उपयोग कर कट्टरपंथ को चुनौती दी गई है। उदाहरण के लिए, यूके में क्विलियम फाउंडेशन कट्टरपंथ के खिलाफ काम कर रहा है और सोशल मीडिया के जरिए युवाओं तक शांति और सहिष्णुता का संदेश पहुंचा रहा है। इसी प्रकार, सऊदी अरब का सकीना कैंपेन सोशल मीडिया पर कट्टरपंथी विचारों का विरोध कर रहा है, और संयुक्त अरब अमीरात में सवाब सेंटर आईएसआईएस के प्रचार का सामना कर रहा है। ऐसे प्रयासों को और भी बढ़ाने की जरूरत है, ताकि युवाओं को उनके भाषा और संस्कृति के अनुसार उचित और संतुलित जानकारी मिल सके। कट्टरपंथ के सामाजिक कारण और धर्मगुरुओं की भूमिका कट्टरपंथ केवल धार्मिक मुद्दा नहीं है, इसके कई सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारण भी होते हैं। बेरोजगारी, भेदभाव, गरीबी, शिक्षा की कमी और समाज में हाशिए पर होने का अहसास, ये सब कारण हैं जिनकी वजह से युवा कट्टरपंथ की ओर खिंच सकते हैं। धर्मगुरुओं और इस्लामी संगठनों को चाहिए कि वे इन मुद्दों को भी ध्यान में रखें और युवाओं को केवल धार्मिक ज्ञान ही नहीं, बल्कि समाज में सशक्त बनाने के अवसर भी प्रदान करें। धर्मगुरुओं और स्थानीय मस्जिदों के साथ-साथ समुदायिक केंद्रों को भी चाहिए कि वे युवाओं के लिए रोजगार, शिक्षा और मानसिक सहयोग की सुविधाएं उपलब्ध कराएं। मस्जिदों को एक ऐसा स्थान बनाया जाना चाहिए जहां पर युवाओं को मेंटरशिप, करियर काउंसलिंग और मनोरंजन के अवसर मिल सकें। इससे न केवल उनका आत्म-सम्मान बढ़ेगा, बल्कि वे कट्टरपंथी विचारों से भी दूर रहेंगे। इसके साथ ही, इस्लामी संगठनों और धर्मगुरुओं को सरकारी एजेंसियों, शैक्षणिक संस्थानों और नागरिक संगठनों के साथ मिलकर काम करना चाहिए। एक समग्र डी-रेडिकलाइजेशन रणनीति बनाई जानी चाहिए, जिसमें युवाओं के लिए रोजगार, मानसिक स्वास्थ्य और समाज में अपनापन महसूस कराने की योजनाएं शामिल हों। अंतर-धार्मिक संवाद का आयोजन भी कट्टरपंथ का प्रभाव कम करने में सहायक हो सकता है। इससे विभिन्न समुदायों के बीच समझ और सौहार्द्र बढ़ता है, जो अतिवादी संगठनों के नकारात्मक संदेशों का सामना करने में सहायक हो सकता है। धर्मगुरुओं की भूमिका: भविष्य की ओर एक कदम मुस्लिम युवाओं का सोशल मीडिया के जरिए कट्टरपंथ की ओर बढ़ना एक गंभीर चुनौती है। इसे केवल कानून और सुरक्षा एजेंसियों के बल पर नहीं रोका जा सकता। इसके लिए धार्मिक और सामुदायिक नेताओं को जिम्मेदारी के साथ आगे आना होगा। प्रामाणिक इस्लामी शिक्षाओं का प्रचार करके, सोशल मीडिया पर सक्रिय रहकर और युवाओं के सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को सुलझाने का प्रयास करके, मुस्लिम नेता और धर्मगुरु युवा मुस्लिमों को कट्टरपंथी विचारधाराओं से दूर रखने में मदद कर सकते हैं। यह लड़ाई केवल आतंकवाद को रोकने की नहीं है, बल्कि मुस्लिम समाज के सुरक्षित भविष्य की रक्षा करने की भी है। इससे युवा मुस्लिम समाज का सकारात्मक हिस्सा बन सकेंगे और एक बेहतर और समझदारी से भरी दुनिया में अपनी जगह बना सकेंगे।