जाति जनगणना: भारत में सामाजिक न्याय को पुनर्परिभाषित करना

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निर्मल कुमार (लेखक आर्थिक,सामाजिक मामलों के जानकार हैं।समसामयिक घटनाक्रम पर उनके लेख सराहे जाते हैं।यह उनके निजी विचार हैं।) एक ऐतिहासिक कदम के तहत, भारत सरकार ने आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जाति गणना को शामिल करने को मंजूरी दे दी है, जो स्वतंत्रता के बाद बंद कर दी गई एक प्रथा की महत्वपूर्ण वापसी को दर्शाता है। समाज सुधारकों, विद्वानों और नीति निर्माताओं द्वारा लंबे समय से मांगे जा रहे इस निर्णय को देश में समानता को बढ़ावा देने और सामाजिक न्याय की जड़ों को गहरा करने की दिशा में एक परिवर्तनकारी कदम के रूप में सराहा जा रहा है। ऐसे समय में जब समावेशी विकास राष्ट्रीय विमर्श का केंद्र है, जाति जनगणना, डेटा-संचालित नीति निर्माण के एक युग की शुरुआत करने का वादा करती है जो वास्तव में भारत के जटिल सामाजिक ताने-बाने को दर्शाती है। जाति जनगणना राष्ट्रीय गणना अभ्यास के हिस्से के रूप में व्यक्ति की जातिगत पहचान पर डेटा का व्यवस्थित संग्रह है। इसका लक्ष्य विभिन्न जाति समूहों के सामाजिक-आर्थिक वितरण की सटीक और विस्तृत समझ हासिल करना है, जिससे सरकार को लक्षित नीतियों को तैयार करने में मदद मिले जो सबसे वंचितों का उत्थान करें। ऐतिहासिक रूप से, 1931 तक औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा जाति के आंकड़े नियमित रूप से एकत्र किए जाते थे। हालाँकि, स्वतंत्रता के बाद, जाति की गणना अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) तक सीमित थी, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अन्य को व्यापक राष्ट्रीय डेटासेट से बाहर रखा गया था। इस अंतर को पाटने का आखिरी प्रयास, 2011 की सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) विसंगतियों और डेटा की अविश्वसनीयता से प्रभावित हुई थी, जिसका मुख्य कारण एक मानकीकृत जाति सूची का अभाव था। भारत ने ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों के उत्थान के लिए संवैधानिक प्रतिबद्धताएं की हैं, लेकिन जाति पर विश्वसनीय डेटा के बिना जनसांख्यिकी के अनुसार, सकारात्मक कार्रवाई की नीतियाँ अक्सर अंधेरे में काम करती हैं। वर्तमान में, ओबीसी के लिए आरक्षण नीतियाँ 1931 की जनगणना के अनुमानों पर आधारित हैं, जिसमें ओबीसी की आबादी 52% आंकी गई थी। हालाँकि, बिहार के 2023 जाति सर्वेक्षण जैसे राज्य-स्तरीय सर्वेक्षणों से पता चला है कि ओबीसी और अत्यंत पिछड़े वर्ग राज्य की आबादी का 63% से अधिक हिस्सा हैं। ऐसे निष्कर्ष कल्याणकारी लाभों और आरक्षण के समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिए एक अद्यतन राष्ट्रीय जाति डेटाबेस की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) ने एसईसीसी 2011 की खामियों को दूर करने के लिए एक परिष्कृत गणना तंत्र की जोरदार वकालत की है, जहां ओपन-एंडेड जाति रिपोर्टिंग के कारण 46 लाख से अधिक अलग-अलग प्रविष्टियां और 8 करोड़ से अधिक त्रुटियां हुईं। आगामी जाति जनगणना का उद्देश्य अधिक संरचित और सत्यापन योग्य डेटा संग्रह प्रक्रिया के माध्यम से इन चुनौतियों को दूर करना है। पहचान सत्यापन के लिए आधार को एकीकृत करना, शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करना और छंटाई और वर्गीकरण के लिए एआई उपकरणों का लाभ उठाना अभ्यास की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए प्रस्तावित उपायों में से हैं। जाति जनगणना सिर्फ़ एक संख्यात्मक अभ्यास से कहीं ज़्यादा है, इसका सामाजिक समानता और शासन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। विभिन्न समुदायों के वास्तविक जनसांख्यिकीय प्रसार को उजागर करके, यह पिछड़े समूहों के उप-वर्गीकरण की अनुमति देता है, जैसे कि न्यायमूर्ति रोहिणी आयोग द्वारा अनुशंसित ओबीसी के भीतर। यह सुनिश्चित करता है कि आरक्षण का लाभ सबसे वंचितों तक पहुँचे, न कि प्रमुख उप-समूहों द्वारा एकाधिकार किया जाए। इसी तरह, सटीक जाति डेटा राजनीतिक प्रतिनिधित्व को संतुलित करने, ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़े लोगों को आवाज़ देकर लोकतंत्र को मज़बूत करने में सहायक हो सकता है। इस कदम के महत्व को भारत के संवैधानिक दृष्टिकोण के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए। अनुच्छेद 340 राज्य को पिछड़े वर्गों के कल्याण की पहचान करने और उन्हें बढ़ावा देने का अधिकार देता है, और जाति जनगणना इस जनादेश के अनुरूप है। यह अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 के लक्ष्यों को प्रतिध्वनित करता है, जो भेदभाव को प्रतिबंधित करते हैं और अवसर की समानता की गारंटी देते हैं। हालांकि, विश्वसनीय डेटा के बिना, इन संवैधानिक आदर्शों को प्रतीकात्मक इशारों में कमजोर किए जाने का जोखिम है। हालांकि इस बात पर चिंता जताई गई है कि जाति जनगणना जातिगत पहचान को मजबूत कर सकती है या राजनीतिक शोषण का साधन बन सकती है, लेकिन पारदर्शी, नैतिक और विवेकपूर्ण कार्यान्वयन के माध्यम से ऐसे जोखिमों को कम किया जा सकता है। जाति जनगणना को राजनीतिक के बजाय विकास के साधन के रूप में मानना इसे समावेशी विकास के उत्प्रेरक में बदल सकता है। निगरानी तंत्र, कानूनी सुरक्षा उपाय और नीति मूल्यांकन अवश्य होने चाहिए।यह सुनिश्चित करने के लिए संस्थागत रूप दिया गया है कि डेटा केवल सामाजिक न्याय के लिए काम करे न कि चुनावी अंकगणित के लिए। इसके अलावा, आय स्तर, शिक्षा और बहुआयामी गरीबी जैसे सामाजिक-आर्थिक संकेतकों के साथ जाति के आंकड़ों को पूरक बनाने से समग्र कल्याण कार्यक्रमों को तैयार करने में मदद मिल सकती है। यह क्षेत्रीय असमानताओं को संबोधित करने और स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के क्षेत्रों में अंतराल को पाटने के लिए अनुकूलित हस्तक्षेप की अनुमति देता है जहां जाति-आधारित असमानताएं बनी रहती हैं। निष्कर्ष रूप में, जाति जनगणना कराने का निर्णय भारत की अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की ओर यात्रा में एक महत्वपूर्ण क्षण है। यह सकारात्मक कार्रवाई को फिर से मापने, कल्याण लक्ष्यीकरण को परिष्कृत करने और हमारे संविधान में निहित समानता के प्रति प्रतिबद्धता को पुनर्जीवित करने का अवसर है। इस डेटा-संचालित दृष्टिकोण को ईमानदारी और सावधानी से अपनाकर, भारत संरचनात्मक असमानताओं को खत्म करने और एक ऐसे राष्ट्र के निर्माण की दिशा में एक निर्णायक कदम उठा सकता है, जहाँ प्रत्येक नागरिक की प्रगति में समान हिस्सेदारी हो।

समसामयिक लेख : झूठ की क़ीमत: ग़लत जानकारी का प्रभाव और समाज पर उसका संकट

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निर्मल कुमार आज की डिजिटल दुनिया में, जहां जानकारी एक क्लिक में फैल जाती है, वहाँ गलत जानकारी (misinformation) का प्रसार एक वैश्विक संकट बन चुका है। फोटोशॉप की गई तस्वीरें, झूठी खबरें और षड्यंत्र के सिद्धांत — इन सबने न केवल जनविश्वास को चोट पहुंचाई है, बल्कि लोगों की जान खतरे में डाली है और सामाजिक स्थिरता को भी गंभीर नुकसान पहुँचाया है। ये झूठ जितनी तेजी से फैलते हैं, उन्हें उतनी ही मुश्किल से सुधारा जा सकता है। लोकतांत्रिक देशों में यह गलत जानकारी चुनाव परिणामों की वैधता पर सवाल उठाने और हिंसा भड़काने का जरिया बन जाती है, जबकि अधिनायकवादी शासन इस जानकारी को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं — असहमति को दबाने और जनता की सोच को नियंत्रित करने के लिए। इस पूरी प्रक्रिया में सच सबसे बड़ा शिकार बन जाता है। गलत जानकारी कई स्रोतों से जन्म ले सकती है। कई बार यह अज्ञानता, अधूरी जानकारी या गलतफहमी का परिणाम होती है। लेकिन वर्तमान समय में अधिकतर झूठ योजनाबद्ध ढंग से फैलाए जाते हैं — सोच-समझकर, किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए। राजनीतिक दल इसका उपयोग जनमत को मोड़ने या विरोधियों को बदनाम करने के लिए करते हैं। विदेशी ताकतें इसे दूसरे देशों को अस्थिर करने के लिए इस्तेमाल करती हैं। कुछ प्रभावशाली व्यक्ति, स्वयंभू विशेषज्ञ या सोशल मीडिया इनफ्लुएंसर अपने प्रसिद्धि, प्रभाव या आर्थिक लाभ के लिए झूठी जानकारी फैलाते हैं। चाहे मंशा कुछ भी हो, परिणाम एक जैसे होते हैं — सच्चाई का क्षरण, समाज का विभाजन और लोकतंत्र की नींव पर प्रहार। भारत भी इस संकट से अछूता नहीं है। 22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के बाद देशभर में झूठी खबरों का सिलसिला चल पड़ा। सोशल मीडिया, यूट्यूब चैनलों, कुछ तथाकथित समाचार पोर्टलों और प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा फैलाया गया यह भ्रम था कि देश में मुस्लिमों और कश्मीरी नागरिकों पर बदले की भावना से हमले किए जा रहे हैं। कुछ वीडियो और तस्वीरें वायरल की गईं, जिनमें मारपीट या हमले के दृश्य थे, और उन्हें हालिया आतंकवादी घटना से जोड़ दिया गया। लेकिन जब इन दावों की गहराई से पड़ताल की गई — कई स्वतंत्र फैक्ट-चेकिंग प्लेटफ़ॉर्म्स और पुलिस रिपोर्ट्स द्वारा — तो ज़्यादातर घटनाएं या तो पुरानी निकलीं, या उनका आतंकवाद से कोई संबंध नहीं था। कुछ मामले निजी दुश्मनी, संपत्ति विवाद या सामान्य आपराधिक गतिविधियों से जुड़े हुए थे। इन झूठी खबरों ने भारत की छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नुकसान पहुंचाया और आंतरिक सामाजिक तनाव को हवा दी। इस तरह की गलत जानकारी न केवल अफवाह फैलाती है, बल्कि समाज में संदेह और नफरत का ज़हर भी घोलती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जानबूझकर फैलाए गए झूठ के बीच की रेखा बहुत बारीक होती है। लेकिन जब कोई व्यक्ति या संस्था बार-बार झूठी जानकारी फैलाए, और उसके कारण समाज में भय या हिंसा उत्पन्न हो, तो उनकी जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। ऐसे लोगों को सामाजिक और कानूनी स्तर पर ज़िम्मेदार ठहराया जाना ज़रूरी है। सरकार और न्यायपालिका को भी चाहिए कि वे जानबूझकर फैलाई गई गलत जानकारी के विरुद्ध कठोर कार्रवाई करें, विशेषकर जब वह राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था या सामाजिक सौहार्द को नुकसान पहुंचाए। परंतु यह कार्रवाई विचारों की अभिव्यक्ति को दबाने के रूप में नहीं, बल्कि हानिकारक आचरण को रोकने के रूप में की जानी चाहिए। विचार का विरोध तब आवश्यक है जब वह विचार किसी व्यक्ति या समुदाय के विरुद्ध नफरत फैलाता है या हिंसा को प्रोत्साहित करता है। फर्जी खबरों का खंडन करना तो आवश्यक है ही, लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है उन व्यक्तियों और संस्थाओं की पहचान करना जो बार-बार समाज को भ्रमित करने का प्रयास करते हैं। जब हम ऐसे झूठ फैलाने वालों को चुनौती देते हैं, तब हम सिर्फ तथ्यों की नहीं, बल्कि लोकतंत्र, सहिष्णुता और सत्यनिष्ठा की रक्षा करते हैं। झूठे विमर्शों से जूझना आज एक राष्ट्रीय जिम्मेदारी बन चुका है। तकनीक के इस युग में जहां एक झूठ लाखों लोगों तक मिनटों में पहुंच सकता है, वहीं सच की रक्षा करने के लिए जागरूकता, जिम्मेदारी और संवेदनशीलता की भी उतनी ही आवश्यकता है। आज जब भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में खड़ा है, तब यह और अधिक आवश्यक हो गया है कि हम सत्य के पक्ष में खड़े हों। झूठ से लड़ना केवल एक सूचना युद्ध नहीं, यह संविधान, सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता की रक्षा का कार्य है । (लेखक निर्मल कुमार वैश्विक आर्थिक व सामाजिक मामलों के जानकर हैं।यह उनके निजी विचार हैं।)

आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता: पहलगाम की त्रासदी और भारत की इंसानियत

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निर्मल कुमार 22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुआ आतंकवादी हमला न केवल एक भयावह त्रासदी है, बल्कि मानवता के खिलाफ किया गया एक गहन अपराध भी है। इस हमले में 26 निर्दोष नागरिकों की जान चली गई और 20 से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हुए। आतंकियों ने सेना की वर्दी पहनकर हिन्दू तीर्थयात्रियों को निशाना बनाया और पीड़ितों की पहचान धर्म पूछकर की। यह घटना केवल एक समुदाय पर हमला नहीं थी, बल्कि पूरे भारत की साझा संस्कृति, भाईचारे और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर किया गया प्रहार थी। इस कायराना हरकत ने न केवल भारत की एकता को चुनौती दी, बल्कि इस्लाम जैसे शांतिप्रिय धर्म की भी गलत तस्वीर प्रस्तुत की। यह समझना बेहद आवश्यक है कि आतंकवादियों की इस नृशंसता का इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है। क़ुरान स्पष्ट रूप से कहता है — “जो लोग तुमसे लड़ते हैं, उनसे तुम भी अल्लाह की राह में लड़ो, लेकिन ज़्यादती मत करो, निस्संदेह अल्लाह ज़्यादती करने वालों को पसंद नहीं करता” (क़ुरान 2:190)। इस्लाम में निर्दोषों की हत्या को सबसे बड़ा गुनाह माना गया है — चाहे वो हिन्दू हो, मुस्लिम, सिख, ईसाई या किसी भी अन्य धर्म के अनुयायी। भारत में 17 करोड़ से अधिक मुस्लिम नागरिक रहते हैं — वे कोई बाहरी नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का अभिन्न हिस्सा हैं। उन्होंने बार-बार आतंकवाद के खिलाफ आवाज़ उठाई है, भाईचारे को बढ़ावा दिया है और राष्ट्रभक्ति की मिसाल पेश की है। पहलगाम हमले के दौरान कश्मीरी मुसलमानों का व्यवहार इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है। जब गोलियों की गूंज और चीख-पुकार के बीच आतंकियों ने धर्म देखकर लोगों की जान ली, तब कई स्थानीय मुसलमान युवकों ने अपनी जान की परवाह किए बिना घायल तीर्थयात्रियों की मदद की। घायलों को उठाकर अस्पताल पहुँचाने से लेकर, रक्तदान करने और उन्हें ढाढ़स बंधाने तक, हर कदम पर उन्होंने दिखा दिया कि इंसानियत किसी मज़हब की मोहताज नहीं होती। कुछ मामलों में तो स्थानीय लोगों ने अपने घरों को अस्थायी चिकित्सा केंद्र बना दिया, ताकि समय पर उपचार मिल सके। उन्होंने साबित किया कि कश्मीर का दिल अमन के लिए धड़कता है, और असली कश्मीरी आतिथ्य कभी मर नहीं सकता। देश की प्रमुख मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं और नेताओं ने भी इस आतंकवादी हमले की कड़ी निंदा की है। ऑल इंडिया इमाम ऑर्गेनाइजेशन के प्रमुख इमाम उमर अहमद इलियासी ने देश भर की 5.5 लाख मस्जिदों में आतंकवाद के खिलाफ विशेष दुआओं की अपील की और साफ कहा कि जो निर्दोषों की हत्या करते हैं, उन्हें भारत की धरती पर दफनाने का कोई हक नहीं। जमीयत उलेमा-ए-हिंद के मौलाना अर्शद मदनी ने इन आतंकियों को “दरिंदे” कहा, जबकि जमाअत-ए-इस्लामी हिंद के प्रमुख सैयद सादतुल्लाह हुसैनी ने पीड़ितों को जल्द न्याय दिलाने की मांग की। हमारे संविधान की आत्मा धर्मनिरपेक्षता है, और भारत की असली ताक़त इसकी विविधता में निहित है। यह ज़रूरी है कि हम इस घटना को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के नजरिए से न देखें। आतंकवाद न किसी धर्म को मानता है, न किसी राष्ट्र को। जो लोग निहत्थे लोगों की हत्या करते हैं, उनकी तुलना किसी धर्म के अनुयायियों से करना सरासर नाइंसाफी है। क़ुरान की आयतें आतंकियों के दावों को सिरे से खारिज करती हैं: “धर्म के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं है” (क़ुरान 2:256) और “दुश्मनी के बावजूद भी इंसाफ करो, यही अल्लाह का तक़वा है” (क़ुरान 5:8)। आज जब कुछ तत्व नफरत फैलाकर देश को बांटना चाहते हैं, तब भारत के नागरिकों को पहले से कहीं ज़्यादा एकजुट होने की आवश्यकता है। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि कुछ आतंकवादियों की कायरता के कारण करोड़ों भारतीय मुस्लिमों को शक की नजर से न देखा जाए। हमें ये समझना होगा कि आतंकवादियों की कोई कौम नहीं होती, उनका कोई धर्म नहीं होता — वे केवल हत्यारे होते हैं। हमारा जवाब नफरत नहीं, इंसानियत होनी चाहिए। पहलगाम का रक्तपात हमें डराने के लिए था, लेकिन हमें और मज़बूती से यह दिखाना होगा कि भारत न झुकता है, न बंटता है। हर वह भारतीय जो अमन, इंसाफ और भाईचारे में विश्वास करता है — वही सच्चा देशभक्त है। भारत की आत्मा एक है, और आतंकवाद उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। पहलगाम के घाव अभी भरे नहीं हैं, लेकिन वहां दिखी इंसानियत की रोशनी हमें अंधेरे से बाहर निकालने की ताक़त देती है। इस मुश्किल घड़ी में यह आवश्यक है कि हम धर्म के नाम पर किसी भी नफरत को अपने बीच जगह न दें। अंत में हम सभी को यह याद रखना होगा: आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। (लेखक निर्मल कुमार आर्थिक व सामाजिक मुद्दों के स्तंभकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।)

विशेष लेख : भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत: परंपरा, पहचान और नवाचार का समागम,

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निर्मल कुमार भारत की सांस्कृतिक विरासत केवल अतीत का गौरव नहीं, बल्कि भविष्य का मार्गदर्शक भी है। यह विविधता की वह जीवंत परंपरा है जो हज़ारों वर्षों से कई धर्मों, भाषाओं, कलाओं और जीवनशैलियों को अपने भीतर समाहित किए हुए है। आज जब वैश्वीकरण, तकनीकी परिवर्तन और सामाजिक तनाव हमारे चारों ओर गहराते जा रहे हैं, भारत का यह साझा सांस्कृतिक बुनियाद एक ऐसा नैतिक और व्यावहारिक संसाधन बन कर उभरता है जिससे हम न केवल अपने देशवासियों को जोड़ सकते हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी समरसता, सहयोग और सतत विकास का मॉडल प्रस्तुत कर सकते हैं। सह-अस्तित्व की परंपरा और आध्यात्मिक एकता भारत के इतिहास में सह-अस्तित्व की भावना सबसे प्रमुख रही है। हमारे संतों, कवियों और विचारकों ने कभी सीमाओं में विश्वास नहीं किया। कबीर, रैदास, गुरु नानक, संत तुकाराम, मीराबाई और बुल्ले शाह जैसे संतों ने धर्मों के बीच की दीवारों को तोड़कर आध्यात्मिक एकता का मार्ग दिखाया। सूफी और भक्ति आंदोलन ने भारत को एक साझा आध्यात्मिक चेतना दी, जिसने धर्म के नाम पर होने वाले विभाजन को चुनौती दी और प्रेम, करुणा, सेवा और समता को केंद्र में रखा। आज अजमेर शरीफ, निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह, वाराणसी के घाट, अमृतसर का स्वर्ण मंदिर, कोणार्क और मदुरै के मंदिर जैसे स्थल न केवल तीर्थ हैं, बल्कि विविध सांस्कृतिक पहचान के मिलन बिंदु भी हैं। इन स्थलों पर हर वर्ग, धर्म और जाति के लोग समान श्रद्धा से आते हैं। पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक समस्याओं का समाधान भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणाली — जैसे आयुर्वेद, योग, सिद्ध चिकित्सा, वास्तु शास्त्र, पंचगव्य, जैविक खेती और पारंपरिक जल-संरक्षण प्रणाली — आज फिर से प्रासंगिक होती जा रही हैं। COVID-19 महामारी के दौरान जब पूरी दुनिया प्राकृतिक जीवनशैली की ओर मुड़ी, तब भारत के योग और आयुर्वेद को नई वैश्विक मान्यता मिली। रैनी वाटर हार्वेस्टिंग की सदियों पुरानी भारतीय तकनीकें — जैसे कि राजस्थान की बावड़ियां, कर्नाटक की कावेरी प्रणाली और पूर्वोत्तर भारत की बांस आधारित जल निकासी प्रणालियाँ — अब शहरी योजनाओं में शामिल की जा रही हैं। यह ज्ञान केवल ग्रामीण भारत तक सीमित नहीं रहा, बल्कि मुंबई, हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे महानगरों की योजनाओं में भी पारंपरिक जल प्रबंधन पद्धतियों को एकीकृत किया जा रहा है। विविध कलाएँ: जीवित परंपराओं का स्वरूप भारत की कलात्मक विरासत उतनी ही समृद्ध है जितनी कि इसकी आध्यात्मिक परंपरा। वारली, मधुबनी, गोंड, पट्टचित्र और फड़ चित्रकला जैसे जनजातीय और लोक कला रूप हमारी विविधता को जीवंत रखते हैं। कथक, भरतनाट्यम, ओडिसी, मोहिनीअट्टम और बाउल संगीत जैसी कलाएँ आज भी नई पीढ़ियों द्वारा सीखी और प्रस्तुत की जा रही हैं। डिजिटल युग में, इन कलाओं को पुनर्जीवित करने की ज़िम्मेदारी भी तकनीक ने ली है। “क्राफ्ट विलेज”, “गूगल आर्ट्स एंड कल्चर”, और “हुनर हाट” जैसी पहलें कारीगरों और कलाकारों को नए बाज़ार और दर्शक दे रही हैं। इससे न केवल संस्कृति संरक्षित हो रही है, बल्कि आजीविका के अवसर भी बढ़ रहे हैं। जशपुर: आदिवासी विरासत की चमक छत्तीसगढ़ का जशपुर ज़िला इस साझा विरासत की अनदेखी लेकिन अत्यंत मूल्यवान धरोहर है। यह क्षेत्र आदिवासी संस्कृति, पर्यावरणीय संतुलन और हस्तशिल्प कला का केंद्र रहा है। यहाँ की पत्थलगड़ी परंपरा, पारंपरिक जड़ी-बूटी चिकित्सा प्रणाली और नृत्य जैसे सरहुल, कर्मा, दंडा, सुवा और पंथी आदिवासी गौरव के जीवंत रूप हैं। जशपुर के बघिमा और गिंगला जैसे गाँवों में महिलाएं पारंपरिक हस्तशिल्प में माहिर हैं — जैसे बांस की टोकरियाँ, साज-सज्जा की वस्तुएं और स्थानीय प्राकृतिक रंगों से बने कपड़े। ये सिर्फ कलात्मक उत्पाद नहीं, बल्कि पारंपरिक ज्ञान की सजीव पुस्तकें हैं। इस जिले के बच्चों को अगर अपनी परंपरा से जोड़ा जाए तो वे वैश्विक नागरिक बनते हुए भी अपनी जड़ों से जुड़ाव बनाए रख सकते हैं। सांस्कृतिक कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध भारत की सांस्कृतिक विरासत अब केवल सीमाओं के भीतर की बात नहीं रही। भारत-नेपाल के तारा धाम या भारत-भूटान की बौद्ध विरासत पर संयुक्त शोध परियोजनाएँ, बांग्लादेश के साथ साझा भाषा उत्सव, और श्रीलंका में रामायण पर्यटन सर्किट जैसे प्रयास इस बात का प्रमाण हैं कि सांस्कृतिक विरासत कूटनीति का एक मज़बूत माध्यम बन चुकी है। नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुद्धार और बौद्ध सर्किट का विकास भारत की उस विरासत को दोबारा जीवित करने का प्रयास है, जिसने कभी एशिया को बौद्धिक और नैतिक नेतृत्व दिया था। शिक्षा में विरासत की भूमिका राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि विद्यार्थियों को केवल रोजगार के योग्य ही नहीं, सांस्कृतिक रूप से भी सजग और संवेदनशील नागरिक बनाया जाए। स्कूली पाठ्यक्रमों में स्थानीय इतिहास, पारंपरिक ज्ञान और कला को स्थान देने से बच्चे अपनी जड़ों से जुड़ते हैं। देशभर में चल रही “हेरिटेज वॉक”, “लोक उत्सव” और “स्कूल इन म्यूज़ियम” जैसी पहलें इसी सोच का हिस्सा हैं। भविष्य की दिशा भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत एक स्थिर स्मारक नहीं है, बल्कि वह गतिशील धरोहर है जो निरंतर विकसित हो रही है। यह सिर्फ़ अतीत की कहानियाँ नहीं सुनाती, बल्कि हमें यह सिखाती है कि सहिष्णुता, विविधता और समावेशिता ही स्थायी प्रगति का मार्ग है। आज जबकि पूरी दुनिया अपनी पहचान की तलाश में असमंजस में है, भारत के पास एक ऐसा सांस्कृतिक मॉडल है जो अतीत की गहराई, वर्तमान की चुनौती और भविष्य की संभावनाओं—तीनों को संतुलित करता है। इस मॉडल को और मज़बूत बनाने के लिए ज़रूरी है कि हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को न केवल संरक्षित करें, बल्कि सक्रिय रूप से उसका उपयोग शिक्षा, रोजगार, सामाजिक समरसता और वैश्विक संवाद के लिए करें। आइए, हम सब मिलकर यह सुनिश्चित करें कि भारत की यह बहुरंगी, बहुस्तरीय, और बहुधर्मी सांस्कृतिक धरोहर केवल किताबों और स्मारकों में न रह जाए, बल्कि हमारी ज़िंदगी की धड़कनों में बनी रहे — आज, कल और आने वाली पीढ़ियों तक। (लेखक निर्मल कुमार अंतर्राष्ट्रीय समाजिक-आर्थिक मामलों के जानकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।)

वक्फ संपत्तियों की मुक्ति: जब संरक्षक ही लुटेरे बन जाएं

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निर्मल कुमार भारत में वक्फ संपत्तियाँ एक ऐसी अमूल्य धरोहर हैं, जिनका मूल उद्देश्य था—गरीबों की सहायता, अनाथों और विधवाओं का संरक्षण, छात्रों को छात्रवृत्ति, और समुदाय के लिए स्कूल, अस्पताल, मदरसे तथा सामुदायिक केंद्रों की स्थापना। ये संपत्तियाँ इस्लामी परंपरा में ‘अल्लाह की अमानत’ मानी जाती हैं—ऐसी संपत्तियाँ जिन्हें एक बार वक्फ कर दिया जाए, तो फिर उनका उपयोग सिर्फ सार्वजनिक भलाई के लिए ही हो सकता है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि आज यह पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन और अवसरवादी राजनीति की शिकार हो चुकी है। आज वक्फ संपत्तियों की सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं है कि बाहरी लोग उन्हें हड़प रहे हैं, बल्कि यह है कि जिन्हें इन संपत्तियों की रक्षा करनी थी—खुद वक्फ बोर्ड और उनके अधिकारी—वही इनकी लूट में सबसे आगे हैं। ये लोग, जिन्हें समुदाय ने ट्रस्टी मानकर अधिकार सौंपे थे, आज उन अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए संपत्तियों को सस्ते दामों पर पट्टे पर दे रहे हैं, अवैध कब्जों को नजरअंदाज कर रहे हैं, और किसी भी प्रकार की पारदर्शिता से मुँह मोड़ रहे हैं। यह विश्वासघात केवल कानूनी नहीं, बल्कि नैतिक और धार्मिक भी है। आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, भारत में लगभग 8 लाख वक्फ संपत्तियाँ और 6 लाख एकड़ भूमि वक्फ के अधीन हैं, जिनका आर्थिक मूल्य लाखों करोड़ रुपये में आँका गया है। कर्नाटक में 59 लाख एकड़, मध्य प्रदेश में 6.79 लाख एकड़ और तमिलनाडु में 6.55 लाख एकड़ भूमि वक्फ के तहत है। लेकिन विडंबना यह है कि इतनी अपार संपदा के बावजूद देश के अधिकांश मुस्लिम गरीब, अनपढ़ और सुविधाहीन हैं। अगर वक्फ संपत्तियों का सदुपयोग होता, तो हजारों स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और छात्रावास खड़े हो सकते थे। लेकिन वास्तविकता यह है कि अनेक स्थानों पर वक्फ ज़मीनें कुछ रुपये महीना किराए पर पट्टे पर दी गई हैं, जिन पर मॉल, होटल और कमर्शियल टावर खड़े कर दिए गए हैं—और इनसे होने वाली कमाई या तो बोर्ड के पास नहीं आती, या फिर उसका कोई हिसाब नहीं होता। खुद वक्फ बोर्डों की भूमिका संदेह के घेरे में है। राज्य वक्फ बोर्डों पर राजनीतिक दखलंदाज़ी, भाई-भतीजावाद और अनियमित नियुक्तियाँ आम हो गई हैं। ऑडिट रिपोर्ट सालों तक लंबित रहती हैं, और जब कोई घोटाला उजागर होता भी है, तो कार्रवाई अक्सर या तो सांप्रदायिकता के नाम पर टाल दी जाती है या फिर कानूनी उलझनों में दबा दी जाती है। ज़मीनी स्तर पर लोग शिकायत करते हैं कि बोर्ड के दफ्तरों में पारदर्शिता की भारी कमी है, रजिस्टर गायब हैं, फाइलें बदल दी जाती हैं और पट्टों में हेराफेरी आम बात है। इस पृष्ठभूमि में वक्फ (संशोधन) विधेयक 2025 एक आशा की किरण के रूप में उभरा है। यह विधेयक वक्फ संपत्तियों के डिजिटलीकरण, GIS मैपिंग, समयबद्ध ऑडिट, ऑनलाइन शिकायत निवारण प्रणाली, और किसी भी संपत्ति लेनदेन के लिए केंद्रीय अनुमति प्रक्रिया जैसी व्यवस्थाओं को कानूनी रूप देगा। इससे न केवल वक्फ संपत्तियों की पारदर्शिता बढ़ेगी, बल्कि प्रशासनिक जवाबदेही भी तय होगी। सरकार ने पहले ही “कौमी वक्फ बोर्ड तरक्कियाती योजना” और “शहरी वक्फ सम्पत्ति विकास योजना” जैसे कार्यक्रम शुरू किए हैं, जो वक्फ संपत्तियों के बेहतर उपयोग और बोर्डों की आधुनिकता की दिशा में प्रयास कर रहे हैं। परंतु जब तक इन योजनाओं को विधायी मजबूती नहीं मिलेगी, तब तक बदलाव अधूरा रहेगा। विधेयक 2025 इस बदलाव की कुंजी है। लेकिन यह भी सच है कि इस विधेयक का विरोध हो रहा है—और यह विरोध गरीबों, इमामों, अनाथों या विद्यार्थियों की ओर से नहीं है। यह विरोध उन लोगों से आ रहा है जिनकी सत्ता और लाभ की संरचना इस भ्रष्ट वक्फ व्यवस्था पर टिकी हुई है। वे धार्मिक भावनाओं की आड़ में विधेयक को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि असल में उन्हें अपनी पोल खुलने का डर सता रहा है। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति फखरुद्दीन इस विधेयक को “एक ऐसा निर्णायक मोड़” कहते हैं, जो वक्फ शासन को नीयत और नीति से जोड़ता है। वहीं वक्फ मामलों की विशेषज्ञ डॉ. सबीना अहमद स्पष्ट रूप से कहती हैं कि “यह केवल एक कानूनी सुधार नहीं, बल्कि समुदाय के सम्मान की पुनर्प्राप्ति है।” अब वक्त आ गया है कि मुस्लिम समाज इस विधेयक का समर्थन खुले मन से करे। यह किसी सरकार या राजनीतिक दल का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, आत्मनिर्भरता और सम्मान का सवाल है। अगर हम चाहते हैं कि हमारी वक्फ संपत्तियाँ सचमुच ‘अल्लाह की अमानत’ बनी रहें, तो हमें पहले उन्हें भ्रष्ट संरक्षकों से मुक्त कराना होगा। यह संघर्ष अब केवल कागज़ी नहीं है—यह एक नैतिक युद्ध है। अतीत की ग़लतियों को पहचानकर अगर हम आज कार्रवाई नहीं करेंगे, तो हमारी आने वाली नस्लें हमें कभी माफ नहीं करेंगी। इसलिए, वक्त आ गया है कि हम इस विधेयक के साथ खड़े हों—सिर्फ सरकार के लिए नहीं, बल्कि इंसाफ के लिए। वक्फ संशोधन विधेयक 2025 का समर्थन करें—अपने भविष्य के लिए, अपने समाज के लिए, और उस न्याय के लिए, जो अब तक सिर्फ वादों में कैद रहा है। (लेखक आर्थिक -समाजिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं।यह उनके निजी विचार हैं।)

लेख : अल्पसंख्यकों की दशकीय छात्रवृत्ति : सशक्तिकरण और चुनौतियां

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निर्मल कुमार पिछले एक दशक में भारत में अल्पसंख्यक छात्रवृत्तियाँ महज़ आर्थिक सहायता का माध्यम नहीं रही हैं, बल्कि उन्होंने सामाजिक न्याय, समावेश और सशक्तिकरण की दिशा में एक मूक क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया है। विशेषकर मुस्लिम समुदाय जैसे उन समूहों के लिए, जो ऐतिहासिक रूप से शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े रहे हैं, इन योजनाओं ने एक नई आशा और अवसरों के क्षितिज खोलने का कार्य किया है। केंद्र सरकार की दो सबसे प्रमुख योजनाएँ—प्रधानमंत्री विशेष छात्रवृत्ति योजना (PMSSS) और अल्पसंख्यकों के लिए पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति योजना—ने इस परिवर्तन का नेतृत्व किया है। हालाँकि इन योजनाओं के कार्यान्वयन में कई स्तरों पर चुनौतियाँ बनी रहीं, फिर भी इनका समग्र प्रभाव व्यापक और गहरा रहा है। PMSSS की शुरुआत जम्मू और कश्मीर के छात्रों को राष्ट्रीय मुख्यधारा से जोड़ने के उद्देश्य से की गई थी। यह योजना छात्रों को भारत के अन्य राज्यों के प्रतिष्ठित संस्थानों में स्नातक शिक्षा प्राप्त करने हेतु आर्थिक सहायता प्रदान करती है। यद्यपि योजना किसी एक धर्म विशेष तक सीमित नहीं है, परंतु चूँकि जम्मू और कश्मीर में मुस्लिम जनसंख्या बहुसंख्यक है, इसलिए इसका सर्वाधिक लाभ मुस्लिम समुदाय को ही मिला है। पिछले दस वर्षों में, इस योजना के अंतर्गत लगभग 25,000 से अधिक छात्रों को इंजीनियरिंग, चिकित्सा, मानविकी और विज्ञान जैसे क्षेत्रों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला है। इससे न केवल उनके व्यक्तिगत भविष्य को आकार मिला है, बल्कि राज्य के भीतर एक सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन की लहर भी चली है। इसके बावजूद योजना को कई बाधाओं का सामना करना पड़ा—विशेषकर अन्य राज्यों में आवास, सामाजिक समावेश और छात्रवृत्ति वितरण में देरी जैसी समस्याओं ने इसके प्रभाव को सीमित किया है। कई छात्रों ने बताया कि नौकरशाही की जड़ता और अस्पष्ट दिशानिर्देशों के कारण उन्हें बार-बार मानसिक और आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ा। इसी तरह, अल्पसंख्यकों के लिए पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति योजना ने देश भर में लाखों अल्पसंख्यक छात्रों को उच्चतर माध्यमिक और स्नातक शिक्षा तक पहुँचने में सहायता प्रदान की है। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और झारखंड जैसे राज्यों में, जहाँ मुस्लिम समुदाय की साक्षरता दर अभी भी राष्ट्रीय औसत से कम है, वहाँ इस योजना ने शिक्षा के ज़रिए गरीबी के चक्र को तोड़ने की दिशा में ठोस पहल की है। CBGA द्वारा 2019 में किए गए एक अध्ययन में यह स्पष्ट हुआ कि योजना के प्रति छात्रों की भागीदारी में लगातार वृद्धि हुई, परंतु समय पर भुगतान न होने के कारण कई लाभार्थियों को परेशानी हुई। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वित्तीय सहायता के प्रभाव को तभी बढ़ाया जा सकता है जब उसके वितरण में पारदर्शिता और समयबद्धता सुनिश्चित की जाए। इसके अतिरिक्त, प्री-मैट्रिक और मेरिट-कम-मीन्स छात्रवृत्तियाँ भी अल्पसंख्यक छात्रों के जीवन में बदलाव लाने वाली योजनाओं में प्रमुख रही हैं। विशेष रूप से मुस्लिम लड़कियों के लिए, इन छात्रवृत्तियों ने स्कूलों में नामांकन दर को बढ़ाया है। कई राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में हुए सर्वेक्षणों से पता चलता है कि जहाँ पहले परिवार बेटियों को आगे की पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित नहीं करते थे, वहीं अब छात्रवृत्ति की उपलब्धता के कारण रुझान में परिवर्तन आया है। फिर भी डिजिटल साक्षरता की कमी, दस्तावेज़ीकरण की जटिलताएँ, और साइबर कैफे पर निर्भरता जैसे मुद्दों ने आवेदन प्रक्रिया को कई बार हतोत्साहित करने वाला बना दिया है। मेरिट-कम-मीन्स स्कॉलरशिप, जो व्यावसायिक शिक्षा जैसे इंजीनियरिंग, मेडिकल, फार्मेसी और होटल मैनेजमेंट के लिए दी जाती है, ने निम्न-मध्यमवर्गीय छात्रों को निजी संस्थानों में दाख़िला लेने में सक्षम बनाया है। विशेष रूप से ऐसे छात्र जिनके पास योग्यता तो है, परंतु आर्थिक संसाधनों की कमी के कारण वे पीछे रह जाते हैं—उनके लिए यह योजना वरदान साबित हुई है। इन छात्रवृत्तियों का सामाजिक प्रभाव केवल शैक्षणिक सीमाओं तक सीमित नहीं रहा। कई बार ऐसे छात्र जो इन योजनाओं के माध्यम से उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे अपने समुदायों में रोल मॉडल बनकर उभरते हैं। वे न केवल अपने परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार लाते हैं, बल्कि शिक्षा के महत्व को लेकर समाज में नई चेतना का संचार करते हैं। कुछ मामलों में देखा गया है कि एक छात्र के शिक्षित होने के बाद उसके छोटे भाई-बहनों की स्कूल में भागीदारी भी स्वतः बढ़ जाती है। फिर भी, भारत जैसे विविधतापूर्ण और विशाल देश में इन योजनाओं की सफलता केवल नीतिगत घोषणाओं पर निर्भर नहीं कर सकती। यह आवश्यक है कि कार्यांवयन तंत्र में सुधार, जवाबदेही की स्पष्ट व्यवस्था, और स्थानीय स्तर पर आउटरीच कार्यक्रमों को मज़बूती से लागू किया जाए। डिजिटल इंडिया के इस युग में ज़रूरी है कि ग्रामीण और सीमांत इलाक़ों के छात्रों तक इंटरनेट, सूचना और तकनीकी संसाधनों की पहुँच हो। इसके अलावा, छात्रवृत्ति योजनाओं को केवल आर्थिक सहायता तक सीमित न रखकर, उन्हें समग्र छात्र सहायता प्रणाली में परिवर्तित करना होगा—जिसमें मेंटरशिप, करियर गाइडेंस, साइकोलॉजिकल काउंसलिंग और स्किल डेवेलपमेंट को भी जोड़ा जाए। अंततः, अल्पसंख्यक छात्रवृत्तियाँ भारत के लोकतांत्रिक ढाँचे में सकारात्मक हस्तक्षेप का प्रतीक हैं। ये योजनाएँ न केवल शिक्षा के अधिकार को साकार करती हैं, बल्कि सामाजिक समावेशन, लैंगिक समानता और राष्ट्रीय एकता को भी बल देती हैं। परंतु यदि इनका सही मायने में लाभ उठाना है, तो यह अनिवार्य हो जाता है कि सरकार, नागरिक समाज और समुदाय स्वयं मिलकर इन पहलों को एक सार्थक और क्रियाशील परिवर्तन के रूप में आगे बढ़ाएँ। (लेखक: अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक व आर्थिक मामलों के जानकार, यह उनका निजी विचार है)

समसामयिक लेख: ‘वक्फ़ संशोधन विधेयक’ पर इतना हल्ला क्यों मचा है?

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निर्मल कुमार “धर्म जनता के लिए अफीम के समान है।” – यह प्रसिद्ध कथन कार्ल मार्क्स का है, जो यह इंगित करता है कि धर्म कई बार समाज में तर्कसंगत सोच को दबाकर केवल भावनात्मक प्रभाव डालता है। यह कथन वर्तमान में वक्फ़ संशोधन विधेयक को लेकर बनाए जा रहे विमर्श पर सटीक बैठता है। कुछ समूह इस विधेयक को इस्लामिक संस्थानों पर सीधा हमला बताने का प्रयास कर रहे हैं और इसे धार्मिक अधिकारों के हनन के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। इस तरह की भ्रामक व्याख्याओं का उद्देश्य जनता की धार्मिक भावनाओं को भड़काना और वास्तविक मुद्दे से ध्यान भटकाना है। लेकिन जब इस विधेयक के प्रावधानों का गहराई से विश्लेषण किया जाता है, तो यह स्पष्ट होता है कि सरकार का उद्देश्य किसी भी धार्मिक समुदाय को निशाना बनाना नहीं, बल्कि वक्फ़ बोर्डों की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना है। दरअसल,भारत में वक्फ़ संपत्तियाँ व्यापक पैमाने पर फैली हुई हैं और बड़ी मात्रा में भूमि वक्फ़ के अधीन है। सरकार द्वारा प्रस्तुत यह संशोधन विधेयक इन संपत्तियों के बेहतर प्रबंधन, पारदर्शिता, भ्रष्टाचार पर रोक और न्यायिक संतुलन स्थापित करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। ऐतिहासिक रूप से, वक्फ़ संपत्तियों के प्रबंधन को लेकर कई विवाद सामने आए हैं, जिनमें अनियमितताएँ, गैर-कानूनी अतिक्रमण, संपत्तियों के दुरुपयोग और वक्फ़ बोर्डों की जवाबदेही की कमी प्रमुख समस्याएँ रही हैं। वर्तमान संशोधन विधेयक का उद्देश्य इन सभी समस्याओं को दूर करना और वक्फ़ संपत्तियों का वास्तविक उपयोग समाज के कल्याण और विकास में सुनिश्चित करना है। क्या वक्फ़ इस्लामिक शरीयत का अनिवार्य भाग है? वक्फ़ की अवधारणा इस्लामी शरीयत में सीधे तौर पर उल्लिखित नहीं है। यदि हम क़ुरआन का अध्ययन करें, तो यह परोपकार और दान करने को प्रोत्साहित करता है, लेकिन वक्फ़ जैसी किसी संस्था की स्थापना का कोई प्रत्यक्ष निर्देश नहीं देता। क़ुरआन में कई आयतें दान और परोपकार को बढ़ावा देने की बात करती हैं, जैसे: “तुम्हें सच्ची भलाई तब तक नहीं मिलेगी, जब तक कि तुम अपनी प्रिय वस्तुओं में से (अल्लाह की राह में) खर्च न करो। और जो कुछ तुम खर्च करते हो, अल्लाह उसे भली-भांति जानता है।” (सूरह आले-इमरान: 92) “जो लोग अल्लाह के मार्ग में अपना धन खर्च करते हैं और फिर अपनी दानशीलता को एहसान जताने या ठेस पहुँचाने वाली बातों से व्यर्थ नहीं करते, उनके लिए उनके रब के पास प्रतिफल है।” (सूरह अल-बक़रा: 262) इन आयतों से स्पष्ट होता है कि इस्लाम में दान और परोपकार को महत्व दिया गया है, लेकिन वक्फ़ एक संस्थागत रूप में बाद में विकसित हुआ। यह सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से अस्तित्व में आया और धीरे-धीरे इसे धार्मिक मान्यता मिलती चली गई। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो वक्फ़ संशोधन विधेयक को केवल धार्मिक चश्मे से देखना अनुचित होगा, क्योंकि यह संस्था पूरी तरह से धार्मिक आदेशों पर आधारित नहीं है, बल्कि इसका प्रशासनिक और कानूनी पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है। वक्फ़ प्रबंधन और गैर-मुस्लिम प्रशासकों की भूमिका इस्लामी कानून की हनफ़ी व्याख्या, जिसे भारत के अधिकांश मुस्लिम समुदाय द्वारा अपनाया जाता है, यह अनिवार्य नहीं मानती कि वक्फ़ संपत्तियों का प्रबंधन केवल मुस्लिम प्रशासकों द्वारा किया जाए। प्रसिद्ध इस्लामी शिक्षा केंद्र दारुल उलूम देवबंद ने अपने फ़तवा संख्या 34944 में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि यदि कोई व्यक्ति वक्फ़ मामलों की गहरी समझ रखता है, ईमानदार और सक्षम है, तो वह किसी भी धर्म से हो सकता है और वक्फ़ संपत्तियों का प्रशासन कर सकता है। इस संदर्भ में, गैर-मुस्लिम प्रशासकों की भागीदारी को लेकर जताई जा रही आपत्तियाँ निराधार प्रतीत होती हैं। वक्फ़ संपत्तियों का प्रबंधन एक प्रशासनिक कार्य है, जिसका उद्देश्य संसाधनों का कुशल उपयोग और न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित करना है। इसके लिए किसी विशेष धार्मिक पहचान की आवश्यकता नहीं है, बल्कि ईमानदारी, पारदर्शिता और कार्यकुशलता की आवश्यकता होती है। सरकार द्वारा प्रस्तुत वक्फ़ संशोधन विधेयक का उद्देश्य वक्फ़ अधिनियम की संरचनात्मक कमियों को दूर करना और वक्फ़ बोर्डों को अधिक पारदर्शी, जवाबदेह और समावेशी बनाना है। इसके तहत कुछ महत्वपूर्ण सुधार प्रस्तावित किए गए हैं: 1. वक्फ़ संपत्तियों का सत्यापन – अब किसी भी भूमि को वक्फ़ संपत्ति घोषित करने से पहले एक विस्तृत और पारदर्शी सत्यापन प्रक्रिया अपनाई जाएगी। इससे फर्जी दावों पर रोक लगेगी और वास्तविक संपत्तियों की रक्षा होगी। 2. न्यायिक निगरानी – यदि किसी संपत्ति को वक्फ़ संपत्ति घोषित करने पर विवाद उत्पन्न होता है, तो न्यायालय इसमें हस्तक्षेप कर सकता है और निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करेगा। इससे कानूनी प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और प्रभावी बनाया जाएगा। 3. वक्फ़ बोर्डों का पुनर्गठन – वक्फ़ बोर्डों की संरचना को अधिक प्रतिनिधिक और समावेशी बनाया जाएगा। इसमें महिलाओं और विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमियों के व्यक्तियों को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाएगा, जिससे प्रबंधन अधिक विविध और उत्तरदायी बन सके। 4. मनमानी शक्तियों पर अंकुश – वर्तमान कानून में वक्फ़ बोर्डों को कुछ मामलों में असीमित अधिकार दिए गए हैं, जिससे कई बार शक्तियों का दुरुपयोग देखा गया है। संशोधन विधेयक के माध्यम से इन अधिकारों को संतुलित किया जाएगा ताकि कोई भी व्यक्ति या संस्था इनका दुरुपयोग न कर सके। निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि यह विधेयक धार्मिक नहीं, बल्कि प्रशासनिक सुधार का हिस्सा है वक्फ़ संशोधन विधेयक को धार्मिक विवाद के रूप में प्रस्तुत करना न केवल अनुचित है, बल्कि यह मूल मुद्दे से ध्यान भटकाने का भी प्रयास है। यह विधेयक किसी विशेष समुदाय को लक्षित करने के लिए नहीं, बल्कि वक्फ़ बोर्डों की पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के लिए लाया गया है। धर्म और शासन को अलग रखना आवश्यक है ताकि प्रशासनिक संस्थाएँ कुशलता से कार्य कर सकें और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जा सके। यह संशोधन विधेयक न केवल संविधान की भावना के अनुरूप है, बल्कि इस्लामी परोपकार की मूल भावना का भी समर्थन करता है, जो पारदर्शिता, ईमानदारी और न्याय पर आधारित है। अब समय आ गया है कि हम धार्मिक भावनाओं से परे जाकर एक निष्पक्ष और तर्कसंगत दृष्टिकोण अपनाएँ और यह सुनिश्चित करें कि वक्फ़ संपत्तियाँ वास्तव में समाज की भलाई के लिए उपयोग की जाएँ, न कि भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का अड्डा बनें। (लेखक अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक,आर्थिक मामलों के जानकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।)

महाकुंभ: आस्था का पर्व, न कि सांप्रदायिक विवाद

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निर्मल कुमार महाकुंभ मेला विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है, जो आस्था, आध्यात्मिकता और भारतीय सांस्कृतिक विरासत का भव्य उत्सव है। यह अद्वितीय आयोजन प्रत्येक बारह वर्षों में प्रयागराज के संगम तट पर आयोजित होता है, जहां पवित्र गंगा, यमुना और दिव्य सरस्वती नदियों का संगम होता है। यह मेला भारत की सांस्कृतिक समृद्धि और कुशल संगठन क्षमता का अद्भुत उदाहरण है। दुर्भाग्यवश, कुछ लोग इस पवित्र अवसर को राजनीतिक रंग देने और सांप्रदायिक दृष्टि से देखने का प्रयास कर रहे हैं, जो न केवल भ्रामक है, बल्कि समाज को बांटने की एक दुर्भावनापूर्ण कोशिश भी है। महाकुंभ: आस्था और परंपरा का प्रतीक महाकुंभ मेला केवल आस्था से जुड़ा एक धार्मिक आयोजन है। इसका मूल आधार वह पौराणिक कथा है, जिसमें समुद्र मंथन के दौरान अमृत की बूंदें चार स्थानों – प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिरीं, जिससे इन स्थानों को विशेष आध्यात्मिक महत्व प्राप्त हुआ। हिंदू धर्म में मान्यता है कि कुंभ मेले के दौरान इन स्थानों पर पवित्र स्नान करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है। लेकिन महाकुंभ केवल धार्मिक अनुष्ठान तक सीमित नहीं है, यह एक सांस्कृतिक एवं सामाजिक उत्सव भी है। यहाँ भारतीय परंपराओं, कला, व्यापार, और शिक्षा की झलक देखने को मिलती है। इस मेले की वैश्विक मान्यता का प्रमाण है कि वर्ष 2017 में दक्षिण कोरिया के जेजू में आयोजित यूनेस्को की ‘अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा के लिए अंतर-सरकारी समिति’ ने ‘कुंभ मेला’ को विश्व की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की प्रतिनिधि सूची में शामिल किया था। महाकुंभ केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता और सामाजिक संरचना का आईना है, जहाँ जाति, वर्ग और सम्प्रदाय से परे सभी को समान दृष्टि से देखा जाता है। सांप्रदायिकता के आरोप निराधार, महाकुंभ का द्वार सबके लिए खुला हाल ही में कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा यह अफवाह फैलाई जा रही है कि महाकुंभ मेले में मुसलमानों का प्रवेश प्रतिबंधित है, जो पूर्णतः असत्य और समाज में फूट डालने की एक कोशिश मात्र है। महाकुंभ मेला कभी भी किसी जाति, वर्ग या धर्म के लिए निषिद्ध नहीं रहा है। यहाँ सभी समुदायों के लोग आ सकते हैं, बशर्ते वे मेले की परंपराओं और धार्मिक आस्थाओं का सम्मान करें। एक महत्वपूर्ण तुलना हज यात्रा से की जा सकती है। हज मुस्लिम समुदाय का एक प्रमुख धार्मिक आयोजन है, जिसमें केवल मुसलमानों को ही प्रवेश की अनुमति होती है, और इस धार्मिक विशिष्टता को वैश्विक स्तर पर सम्मान दिया जाता है। इसके विपरीत, महाकुंभ में ऐसी कोई धार्मिक पाबंदी नहीं है, और अन्य धर्मों के अनुयायियों का भी स्वागत है। फिर भी, कुछ लोग महाकुंभ को एक सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास कर रहे हैं, जो भारत की सद्भावना और धार्मिक सहिष्णुता की मूल भावना का अपमान है। sporadic घटनाओं को बहुसंख्यक विचारधारा के रूप में प्रस्तुत करना एक भ्रामक प्रचार से अधिक कुछ नहीं। विश्व का सबसे बड़ा आयोजन: प्रबंधन और प्रशासन की अद्भुत मिसाल महाकुंभ में अनुमानित 40 करोड़ से अधिक श्रद्धालु भाग लेंगे, जिससे यह विश्व का सबसे विशाल धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन बन जाता है। इतने बड़े स्तर पर आयोजन की सफलता सुनिश्चित करना सरकार, प्रशासन और स्वयंसेवकों के लिए एक अभूतपूर्व चुनौती है। इसके लिए एक अस्थायी टेंट सिटी बसाई जाती है, जिसमें सभी आवश्यक सुविधाएँ—स्वच्छता, पेयजल, चिकित्सा, सुरक्षा, परिवहन आदि का विशेष ध्यान रखा जाता है। अगर तुलना करें तो हज यात्रा में प्रतिवर्ष लगभग 40 लाख लोग भाग लेते हैं, जिसे आयोजित करना भी एक जटिल कार्य है। लेकिन कल्पना कीजिए कि महाकुंभ में इससे 100 गुना अधिक लोग एकत्र होते हैं, फिर भी प्रशासनिक कुशलता से इसका सफल आयोजन किया जाता है। इस आयोजन की सफलता भारत की प्रशासनिक क्षमता, प्रबंधन दक्षता और तकनीकी नवाचारों का प्रतीक है। इस बार के महाकुंभ में आधुनिक तकनीक का भी व्यापक रूप से उपयोग किया जा रहा है। ड्रोन कैमरों से सुरक्षा की निगरानी, पर्यावरण अनुकूल व्यवस्थाएँ, डिजिटल भुगतान की सुविधाएँ, और अत्याधुनिक आपातकालीन सेवाएँ इस आयोजन को और अधिक सुव्यवस्थित और सुरक्षित बना रही हैं। महाकुंभ: भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक शक्ति का प्रदर्शन महाकुंभ केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक शक्ति का एक वैश्विक मंच है। यह हमारी सामूहिक स्मृतियों और सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न अंग है। यह आयोजन न केवल भारत की धार्मिक विविधता को दर्शाता है, बल्कि हमारे समाज की सहिष्णुता, एकता और संगठित प्रशासनिक क्षमता को भी प्रदर्शित करता है। महाकुंभ एकता, आत्मचिंतन और हमारी सांस्कृतिक विरासत के प्रति गर्व का उत्सव है। हमें इसे राजनीति और संकीर्ण मानसिकता से दूर रखना चाहिए और इसकी वास्तविक भावना को समझना चाहिए। भारत ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि वह दुनिया के सबसे बड़े आयोजनों को कुशलतापूर्वक संभालने में सक्षम है। हमें इस महान उपलब्धि का सम्मान करना चाहिए और इसे भारत की समावेशी और सहिष्णु परंपराओं का प्रतीक मानते हुए गर्व महसूस करना चाहिए। आइए, हम सब मिलकर इस ऐतिहासिक आयोजन की पवित्रता बनाए रखें और इसे विश्वभर के लोगों के लिए चमत्कार और श्रद्धा का केंद्र बनाएं। महाकुंभ केवल हिंदुओं का नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीय समाज का गौरव है। एक संगठित राष्ट्र के रूप में, हमें इस अद्भुत उपलब्धि का उत्सव मनाना चाहिए और अपने बहुसांस्कृतिक समाज की शांति और परस्पर सम्मान की भावना को बनाए रखना चाहिए। (यह लेखक के निजी विचार हैं।लेखक अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों,घटनाक्रम पर लेख करते हैं।)

43 साल बाद क्या मोदी की कुवैत यात्रा से भारत को फायदा हुआ ? भारत-कुवैत के सम्बन्ध की मजबूती क्यों है जरूरी? एक विश्लेषण

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निर्मल कुमार (लेखक सामाजिक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।ये उनके निजी विचार हैं।) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 21-22 दिसंबर, 2024 को कुवैत यात्रा ने भारत और कुवैत के बीच संबंधों में एक ऐतिहासिक उपलब्धि दर्ज की। यह यात्रा पिछले 43 वर्षों में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की कुवैत की पहली यात्रा थी, इससे पहले इंदिरा गांधी ने 1981 में कुवैत का दौरा किया था। इस यात्रा ने भारत-कुवैत संबंधों को रणनीतिक साझेदारी के स्तर तक बढ़ा दिया, जो पश्चिम एशिया में भारत की बढ़ती भूमिका और क्षेत्र में उसकी सक्रिय कूटनीति को दर्शाता है। इस लेख में यात्रा की प्रमुख उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया है और इसे भारत की व्यापक पश्चिम एशिया नीति के संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है। रणनीतिक साझेदारी का गठन: एक ऐतिहासिक कदम प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक थी भारत-कुवैत संबंधों को “रणनीतिक साझेदारी” के स्तर तक ले जाना। यह कदम व्यापार, निवेश, रक्षा, ऊर्जा और सांस्कृतिक आदान-प्रदान जैसे प्रमुख क्षेत्रों में व्यापक और संरचित सहयोग की प्रतिबद्धता का प्रतीक है। ऐतिहासिक रूप से, भारत और कुवैत के बीच व्यापार और सांस्कृतिक संबंधों की जड़ें सदियों पुरानी हैं। रणनीतिक साझेदारी का गठन इस ऐतिहासिक संबंध को औपचारिक रूप देता है और वैश्विक और क्षेत्रीय चुनौतियों से निपटने के लिए समकालीन उपाय प्रदान करता है। इस साझेदारी को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए दोनों देशों ने संयुक्त सहयोग आयोग (Joint Commission on Cooperation – JCC) की स्थापना की। यह आयोग दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के नेतृत्व में कार्य करेगा और विभिन्न क्षेत्रों में रणनीतिक दिशा-निर्देश प्रदान करेगा। JCC का गठन इस बात का प्रतीक है कि भारत और कुवैत दीर्घकालिक और सतत सहयोग के लिए प्रतिबद्ध हैं। व्यापार और निवेश: नए अवसरों की खोज भारत और कुवैत के बीच व्यापार लंबे समय से दोनों देशों के संबंधों का प्रमुख आधार रहा है। पीएम मोदी की यात्रा के दौरान, व्यापार और निवेश के क्षेत्रों में विविधता और विकास की संभावनाओं पर जोर दिया गया। कुवैत ने भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में निवेश के लिए विशेष रुचि दिखाई। तकनीक, स्वास्थ्य, पर्यटन, खाद्य सुरक्षा और लॉजिस्टिक्स जैसे क्षेत्रों को आपसी सहयोग के लिए प्राथमिकता दी गई। कुवैत का सॉवरेन वेल्थ फंड, जो दुनिया में सबसे बड़ा है, भारत के बुनियादी ढांचे और अन्य रणनीतिक क्षेत्रों में परिवर्तनकारी भूमिका निभा सकता है। साथ ही, व्यवसायों के बीच बातचीत तेज करने और निवेश प्रक्रियाओं को सरल बनाने पर भी सहमति हुई। ऊर्जा सहयोग का विस्तार भारत और कुवैत के बीच ऊर्जा संबंध लंबे समय से महत्वपूर्ण रहे हैं। कुवैत भारत के लिए कच्चे तेल के प्रमुख आपूर्तिकर्ताओं में से एक है। इस यात्रा ने ऊर्जा सहयोग को पारंपरिक खरीदार-विक्रेता संबंध से आगे बढ़ाकर व्यापक ऊर्जा साझेदारी का रूप दिया। भारत और कुवैत ने अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम क्षेत्रों, नवीकरणीय ऊर्जा और भारत के स्ट्रैटेजिक पेट्रोलियम रिज़र्व प्रोग्राम में सहयोग पर सहमति जताई। कुवैत का अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) में शामिल होना टिकाऊ ऊर्जा समाधानों को बढ़ावा देने की दिशा में एक बड़ा कदम है। दोनों देशों ने सौर ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देने और कार्बन उत्सर्जन में कमी के लिए सहयोग करने का वादा किया। यह भारत की नवीकरणीय ऊर्जा पर जोर देने और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक नेतृत्व के अनुरूप है। रक्षा और सुरक्षा: सहयोग का नया आयाम यात्रा के दौरान, रक्षा सहयोग पर हस्ताक्षर किए गए समझौता ज्ञापन (MoU) को एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना गया। इस समझौते में संयुक्त सैन्य अभ्यास, प्रशिक्षण, तटीय रक्षा, समुद्री सुरक्षा और रक्षा उपकरणों के संयुक्त विकास और उत्पादन पर सहयोग की रूपरेखा तैयार की गई। सुरक्षा के क्षेत्र में, दोनों देशों ने सभी प्रकार के आतंकवाद की निंदा की, जिसमें सीमा-पार आतंकवाद भी शामिल है। उन्होंने आतंकवाद वित्तपोषण नेटवर्क को बाधित करने, आतंकवादी ढांचे को खत्म करने और साइबर सुरक्षा व अंतरराष्ट्रीय अपराधों से निपटने के लिए सहयोग बढ़ाने पर सहमति जताई। यह क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा चुनौतियों का समाधान करने के लिए एक साझा प्रतिबद्धता को दर्शाता है। भारतीय प्रवासी और सांस्कृतिक संबंध कुवैत में 10 लाख से अधिक भारतीय प्रवासी रहते हैं, जो दोनों देशों के संबंधों को मजबूती प्रदान करते हैं। पीएम मोदी ने भारतीय समुदाय की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करते हुए उनके योगदान की सराहना की। 2025-2029 के लिए सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम (CEP) और 2025-2028 के लिए खेलों पर कार्यकारी कार्यक्रम पर हस्ताक्षर किए गए। शिक्षा और कौशल विकास के क्षेत्र में भी सहयोग को गहरा करने पर जोर दिया गया। दोनों देशों ने ऑनलाइन लर्निंग प्लेटफॉर्म को बढ़ावा देने और शैक्षिक बुनियादी ढांचे को आधुनिक बनाने की दिशा में प्रयास तेज करने का संकल्प लिया। भारत की पश्चिम एशिया रणनीति में कुवैत की भूमिका कुवैत यात्रा को भारत की व्यापक पश्चिम एशिया नीति के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। यह क्षेत्र भारत के लिए ऊर्जा जरूरतों, व्यापार मार्गों और बड़ी भारतीय प्रवासी आबादी के कारण रणनीतिक महत्व रखता है। भारत ने खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) के देशों के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने के लिए सक्रिय कूटनीति अपनाई है। कुवैत, वर्तमान में GCC का अध्यक्ष होने के नाते, भारत-GCC सहयोग को गहरा करने का एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है। दोनों पक्षों ने भारत-GCC मुक्त व्यापार समझौते (FTA) को शीघ्र पूरा करने पर जोर दिया। यह न केवल व्यापार और निवेश को बढ़ावा देगा बल्कि क्षेत्र में भारत की भूमिका को और मजबूत करेगा। बहुपक्षीय सहयोग और वैश्विक शासन सुधार भारत और कुवैत ने एक प्रभावी बहुपक्षीय प्रणाली के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई, जिसमें संयुक्त राष्ट्र में सुधार भी शामिल है। दोनों देशों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को अधिक प्रतिनिधि और समकालीन वास्तविकताओं का प्रतिबिंबित करने वाला बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। यह भारत के लंबे समय से चले आ रहे एक समान और न्यायसंगत वैश्विक शासन प्रणाली के समर्थन के अनुरूप है। प्रधानमंत्री मोदी की कुवैत यात्रा भारत की पश्चिम एशिया में बढ़ती रणनीतिक उपस्थिति का प्रमाण है। इस यात्रा ने न केवल द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत किया बल्कि भारत को क्षेत्रीय और वैश्विक चुनौतियों का सामना करने में एक विश्वसनीय भागीदार के रूप में प्रस्तुत किया। आर्थिक सहयोग, ऊर्जा सुरक्षा, रक्षा साझेदारी और सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर केंद्रित यह यात्रा दोनों … Read more

लेख : सीरिया संकट और इस्लामिक स्टेट: सतर्कता, समझदारी और जिम्मेदार दृष्टिकोण की आवश्यकता

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सीरिया में हुए तख्तापलट से उपजे हालात का आतंकवादी समूह अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए एक बड़ा झूठ फैला रहे हैं। सामाजिक व धार्मिक मामलों के जानकार निर्मल कुमार ने इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किये हैं। सीरिया में हाल ही में हुए राजनीतिक और सैन्य घटनाक्रमों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गहरी चिंता पैदा कर दी है। 8 दिसंबर 2024 को विद्रोही गुटों ने राष्ट्रपति बशर अल-असद के 24 वर्षीय शासन को समाप्त कर दिया, जिससे उन्हें देश छोड़कर रूस भागने पर मजबूर होना पड़ा। इस तख्तापलट के बाद, हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएस) विद्रोही गुट ने मोहम्मद अल-बशीर को अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किया। हालांकि, इस राजनीतिक बदलाव के बीच सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि कुछ कट्टरपंथी गुट इस घटनाक्रम को इस्लामिक स्टेट (ISIS) की जीत के रूप में चित्रित कर रहे हैं। वे इसे एक दिव्य अभियान का हिस्सा बताकर मध्य एशिया और अन्य क्षेत्रों के मुस्लिम युवाओं को अपने साथ जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। कट्टरपंथी प्रचार और वास्तविकता का अंतर कट्टरपंथी प्रचारकों द्वारा प्रस्तुत की जा रही यह व्याख्या न केवल भ्रामक है, बल्कि खतरनाक भी है। वे “इस्लामिक शासन” और “खिलाफत” की अवधारणाओं को तोड़-मरोड़कर युवाओं के बीच झूठा नैरेटिव गढ़ रहे हैं। यह प्रचार तंत्र युवाओं की धार्मिक भावनाओं को भड़काने और उन्हें हिंसा के मार्ग पर ले जाने के लिए तैयार किया गया है। वास्तव में, सीरियाई संघर्ष एक बहुआयामी समस्या है, जिसमें कई गुट सत्ता, प्रभाव और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ISIS जैसे चरमपंथी समूह इस संघर्ष को अपने “खिलाफत” के पुनर्जन्म के रूप में दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। वे इसे एक धार्मिक युद्ध के रूप में प्रचारित करते हैं, जबकि उनकी गतिविधियाँ इस्लाम के मूल सिद्धांतों के विपरीत हैं। यह एक वैचारिक जाल है, जो अंततः विनाश, मौत और पीड़ा की ओर ले जाता है। इस्लामी शासन और ‘खिलाफत’ की सच्ची अवधारणा “इस्लामी शासन” और “खिलाफत” की अवधारणा इस्लामी न्याय, परामर्श (शूरा), सहिष्णुता और करुणा पर आधारित है। इस्लामी परंपरा में शूरा का विशेष महत्व है, जिसमें शासक और जनता के बीच विचार-विमर्श होता है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक प्रारंभिक स्वरूप है। ISIS द्वारा स्थापित तथाकथित “इस्लामिक स्टेट” एक आतंकवादी ढांचा था, जिसने इस्लामी सिद्धांतों का गंभीर उल्लंघन किया। उनका शासन अत्याचार, उत्पीड़न और हिंसा पर आधारित था। न्याय, दया और मानव गरिमा जैसे मूल इस्लामी सिद्धांतों को उन्होंने अपने राजनीतिक एजेंडे की पूर्ति के लिए तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया। इसके विपरीत, इस्लामी इतिहास में वास्तविक जिहाद का अर्थ है – व्यक्तिगत सुधार, समाज में न्याय की स्थापना और मानवता की सेवा। जिहाद कभी भी आतंकवाद, हिंसा या निर्दोष लोगों की हत्या को सही नहीं ठहराता। यह शिक्षा, दान, शांतिपूर्ण प्रतिरोध और न्याय के लिए प्रयास करने के रूप में प्रकट होता है। सीरियाई संघर्ष: चरमपंथी समूहों का एजेंडा वर्तमान सीरियाई घटनाक्रम को कुछ कट्टरपंथी गुट “खिलाफत” की स्थापना के प्रयास के रूप में चित्रित कर रहे हैं। वे जिहाद और खिलाफत जैसे पवित्र शब्दों का दुरुपयोग कर युवाओं को अपने जाल में फंसाने का प्रयास कर रहे हैं। इस्लामी शिक्षाओं को विकृत करके, वे ऐसे नैरेटिव गढ़ रहे हैं जो हिंसा और अराजकता को बढ़ावा देते हैं। इन समूहों का मुख्य उद्देश्य मुस्लिम युवाओं की धार्मिक भावनाओं का दोहन करना और उन्हें अपने हिंसक अभियानों का हिस्सा बनाना है। यह एक वैचारिक जाल है, जो अंततः विनाश, मौत और पीड़ा की ओर ले जाता है। युवाओं को शिक्षित और सतर्क रहना होगा मुस्लिम युवाओं को इन कट्टरपंथी गुटों के झूठे प्रचार से सावधान रहना होगा। उन्हें इस्लामी शिक्षाओं का सही अर्थ समझने के लिए विद्वानों और धार्मिक विशेषज्ञों से मार्गदर्शन लेना चाहिए। इस्लाम शिक्षा, करुणा, मानवता और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित धर्म है। युवाओं को यह समझना होगा कि ISIS और अन्य चरमपंथी गुट इस्लाम के सच्चे सिद्धांतों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। इस्लाम में किसी निर्दोष व्यक्ति की हत्या को गंभीर पाप माना गया है। कुरान कहता है: “जिसने किसी निर्दोष की हत्या की, उसने संपूर्ण मानवता की हत्या की।” (सूरह अल-मायदा: 5:32) समाज और नेतृत्व की भूमिका • धार्मिक नेताओं को कट्टरपंथ के खिलाफ स्पष्ट और प्रभावी बयान देने होंगे। • माता-पिता और शिक्षकों को युवाओं को चरमपंथी विचारधारा से दूर रखने के लिए शिक्षित और मार्गदर्शन करना होगा। • सरकारों को कट्टरपंथ को रोकने के लिए ठोस नीतियाँ अपनानी होंगी। • शिक्षण संस्थानों में सहिष्णुता, शांति और संवाद को बढ़ावा देना होगा। इस्लाम: शांति और न्याय का धर्म इस्लाम ने हमेशा ज्ञान, शांति और सहिष्णुता को प्राथमिकता दी है। इस्लामी इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब मुसलमानों ने अत्यंत कठिन परिस्थितियों में भी न्याय, करुणा और सह-अस्तित्व के सिद्धांतों को बनाए रखा। युवाओं को यह समझना होगा कि इस्लाम का सच्चा अनुसरण शिक्षा, सेवा, और सामाजिक सुधार के माध्यम से किया जाता है। यह हिंसा, रक्तपात या नफरत के माध्यम से संभव नहीं है। ऐसे में समझने की जरूरत है कि सीरिया में हालिया राजनीतिक परिवर्तन को ISIS की जीत के रूप में प्रचारित करना एक खतरनाक झूठ है। मुस्लिम युवाओं को इस दुष्प्रचार से सतर्क रहना चाहिए और इस्लाम की सच्ची शिक्षाओं को अपनाना चाहिए। आतंकवाद, हिंसा और चरमपंथ इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ हैं। यह प्रत्येक मुस्लिम की जिम्मेदारी है कि वह ज्ञान, शांति और न्याय के मार्ग पर चले। कुरान और पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की शिक्षाओं के आधार पर, हमें एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए, जो करुणा, सहिष्णुता और मानवता के मूल्यों पर आधारित हो। (यह लेख निर्मल कुमार के निजी विचार हैं।)