गंगा-जमुनी तहज़ीब: भारतीय समाज में सद्भाव और एकता का प्रतीक
निर्मल कुमार (लेखक अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक आर्थिक मुद्दों के जानकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।) उत्तरप्रदेश के बहराइच जिले में हाल ही में हुई सांप्रदायिक हिंसा ने एक बार फिर भारत की सामाजिक एकता की बुनियाद को चुनौती दी है। ये घटनाएं केवल कानून-व्यवस्था के लिए खतरा नहीं हैं, बल्कि उस साझा सांस्कृतिक विरासत के लिए भी खतरा हैं जिसने सदियों से भारत की पहचान को परिभाषित किया है। ऐसे समय में, हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों को अपने साझा अतीत को याद करते हुए उन मूल्यों को अपनाने की आवश्यकता है जिन्होंने कभी उन्हें एक-दूसरे से जोड़ा था। भारत का उपमहाद्वीप धार्मिक और सांस्कृतिक मेल-जोल की एक अनमोल धरोहर का घर है। विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा-जमुनी तहज़ीब की संस्कृति, जो हिंदू-मुस्लिम परंपराओं का अनोखा संगम है, इस साझी विरासत का प्रतीक है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जो चीजें हमें जोड़ती हैं, वे उन चीजों से कहीं अधिक मजबूत हैं जो हमें बांटती हैं। गंगा-जमुनी तहज़ीब वह भावना है जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों ने मिलकर पर्व-त्योहार मनाए, और एक-दूसरे के रीति-रिवाजों का सम्मान किया। दिवाली और ईद का मिलकर मनाना, सूफी संतों और भक्ति कवियों के प्रति साझा श्रद्धा, यह सब हमारी संस्कृति में पारस्परिक सम्मान और सह-अस्तित्व का प्रतीक हैं। यह सिर्फ एक साझा अतीत नहीं है बल्कि एक ऐसा भविष्य भी दर्शाता है जहां विविधता को बांटने का कारण नहीं बल्कि एकता का आधार माना जाए। सदियों से हिंदू और मुस्लिम समुदायों ने एक साथ रहते हुए भाषा, कला, संगीत, भोजन और जीवनशैली को साझा किया है। यह सांस्कृतिक मिलन इन दोनों समुदायों की समृद्धि का स्रोत रहा है और इस धरोहर को हमें हर हाल में संजोकर रखना चाहिए, चाहे हालात कैसे भी हों। धर्म के प्रति सम्मान: शांति और सद्भाव की बुनियाद है ऐसे कठिन समय में, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक-दूसरे के धार्मिक विश्वासों का सम्मान ही शांति और सामाजिक सौहार्द की बुनियाद है। मंदिरों और मस्जिदों के प्रति आदर, त्योहारों और रीति-रिवाजों का सम्मान, यही वह नींव है जो हमें एकजुट रखती है। सच्चा धर्म तभी होता है जब हम इस विविधता का सम्मान करें, इसे बांटने के साधन के रूप में नहीं बल्कि समाज को जोड़ने के एक सशक्त माध्यम के रूप में देखें। हिंदू और मुस्लिम समुदायों ने हमेशा एक-दूसरे की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में भाग लिया है। सूफी परंपराओं में हिंदू देवी-देवताओं का जिक्र और हिंदू मंदिरों में इस्लामी वास्तुकला का प्रभाव इस गहरी सांस्कृतिक बुनावट के जीवंत उदाहरण हैं। बहराइच, जो सूफी संत सैयद सालार मसूद गाज़ी से जुड़ा हुआ है, वहां इस साझी विरासत का विशेष महत्व है। लेकिन हाल की घटनाओं ने इस विरासत को चुनौती दी है। इस समय यह जरूरी है कि हम उन तत्वों से सावधान रहें जो नफरत और बंटवारे का खेल खेलते हैं। ये लोग, चाहे राजनीतिक स्वार्थ के लिए हों या कट्टरपंथी एजेंडा के लिए, समाज में विभाजन पैदा करके ही अपना लाभ देखते हैं। उनके नफरत भरे भाषण, अफवाहें और प्रचार केवल हिंसा को बढ़ावा देते हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में जहां सही-गलत जानकारी तेजी से फैलती है, यह जरूरी है कि हम इन कोशिशों को समझें और इनसे बचें। हमारी असली ताकत नफरत की इन आवाजों को अस्वीकार करने में है। हमें हिंसा के बजाय संवाद, सहानुभूति और समझ का रास्ता अपनाना चाहिए। इस हिंसा के बाद एक और जरूरी सबक यह है कि कानून पर भरोसा बनाए रखें। किसी भी सभ्य समाज में न्याय की प्राप्ति कानून के जरिए ही होनी चाहिए, न कि भीड़ के गुस्से से। भीड़तंत्र केवल अराजकता और विभाजन को गहरा करता है। भारत का न्यायिक तंत्र, हालांकि इसमें सुधार की गुंजाइश है, फिर भी सभी नागरिकों के लिए न्याय और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बना है। अगर हम हिंसा का रास्ता चुनते हैं, तो न केवल कानूनी प्रक्रिया कमजोर होती है, बल्कि समाज में अराजकता भी बढ़ती है। हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि वे कानून में भरोसा रखें और जहां जरूरी हो उसे सुधारने की दिशा में काम करें, न कि खुद कानून अपने हाथ में लें। जब हम कानूनी रास्ता अपनाते हैं, तो यह सुनिश्चित होता है कि किसी भी अपराध के लिए उचित न्याय मिले और हिंसा भड़काने वालों को सजा दी जाए। किसी भी शिकायत का समाधान हिंसा से करना किसी भी शांतिपूर्ण समाज का रास्ता नहीं है और न ही यह हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के मूल्यों का सही प्रतिनिधित्व करता है। बहराइच हिंसा के बाद, यह जरूरी है कि दोनों समुदाय न केवल घावों को भरें बल्कि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए भी एकजुट हों। गंगा-जमुनी तहज़ीब की धरोहर को केवल अतीत की याद के रूप में नहीं बल्कि एक जीवंत आदर्श के रूप में फिर से अपनाना जरूरी है जो हमारे वर्तमान और भविष्य को दिशा दे सके। दोनों धार्मिक समुदायों के नेताओं को संवाद के माध्यम से विश्वास का निर्माण करना चाहिए और अपने अनुयायियों को उन सांस्कृतिक धरोहरों की याद दिलानी चाहिए जो उन्हें जोड़ती हैं। नागरिक समाज, मीडिया और शैक्षिक संस्थानों को भी विभाजनकारी कथाओं का मुकाबला करने और एकता की कहानियों को बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जो चीजें हमें जोड़ती हैं, वे उन चीजों से कहीं अधिक मजबूत हैं जो हमें बांटती हैं। हिंदू और मुस्लिम समुदायों ने मिलकर सदियों में एक समृद्ध सांझा विरासत बनाई है और एक घटना या हिंसा का दौर इसे खत्म नहीं कर सकता। शांति, सम्मान और कानून पर भरोसे का रास्ता चुनकर हम न केवल अपने अतीत का सम्मान करते हैं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर भविष्य भी सुनिश्चित करते हैं। आज, गंगा-जमुनी तहज़ीब के मूल्यों को अपनाने और हमें बांटने की कोशिश करने वाली शक्तियों को अस्वीकार करने का समय है। (इस लेख में छपी तस्वीर गूगल से हैदराबाद खबर से ली गई है।ख़बर ज़नपक्ष आभार व्यक्त करता है।)