गोकुलाष्टमी पर्व के शताब्दी वर्ष पर कंडोरा में उमड़ा श्रद्धा का सैलाब — मूढू बाबा की परंपरा आज भी जीवंत, 100 वर्षों से अटूट आस्था का पर्व

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गोकुलाष्टमी पर्व के शताब्दी वर्ष पर कंडोरा में उमड़ा श्रद्धा का सैलाब — मूढू बाबा की परंपरा आज भी जीवंत, 100 वर्षों से अटूट आस्था का पर्व अष्टमी के दिन आयुष जल से मां यशोदा अपने कान्हा को कराती हैं स्नान संतोष चौधरी जशपुर,12 नवंबर 2025 – महाकुल समाज के आराध्य भक्त प्रहलाद उर्फ मूढू बाबा द्वारा 1925 में प्रारंभ की गई गोकुलाष्टमी बाल लीला की परंपरा इस वर्ष अपने 100वें वर्ष में प्रवेश कर रही है। यह अनूठा पर्व आज भी कंडोरा गांव में उसी रीति-रिवाज और श्रद्धा के साथ मनाया जा रहा है, जैसा एक शताब्दी पूर्व प्रारंभ हुआ था।आज मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की मौजूदगी में गूंजेगा “जय यादव जय माधव”।   यह बाल लीला सप्तमी की रात से प्रारंभ होती है, जब नौ प्रकार की जड़ी-बूटियों को मिलाकर आयुष जल तैयार किया जाता है। अष्टमी की भोर चार बजे अविवाहित बालक-बालिकाओं को इस आयुष जल से स्नान कराया जाता है, फिर उन्हें तिलक-चंदन लगाकर नए वस्त्र पहनाए जाते हैं। चावल के आटे, शकरकंद, छेना और घी से बनी मीठी रोटी तैयार की जाती है, जिसे दही के साथ प्रसाद स्वरूप बच्चों और उपस्थित जनों को वितरित किया जाता है। घर-घर में यही प्रसाद प्रेमपूर्वक परोसा जाता है।       इस बाल लीला का उद्देश्य है — “बालकों की आयु बढ़े तो वंश वृद्धि होगी”, इसी मंगलकामना के साथ महाकुल समाज में गोकुलाष्टमी पर्व मनाया जाता है।   गांव के बुजुर्ग ग्राम पटेल निराकार यादव बताते हैं कि इस परंपरा की शुरुआत स्वर्गीय मूढू बाबा ने की थी, जिन्होंने धर्म, भक्ति और गौसेवा के पथ पर जीवन समर्पित किया। उन्होंने चारों धाम की पैदल यात्रा की थी और प्रायः मथुरा-वृंदावन जाकर गोसेवा में लीन रहते थे। मूढू बाबा कंदोरा और बोडोकछार — दोनों गांवों के जमींदार थे और लगभग 120 एकड़ भूमि के स्वामी थे। उनके तीन पुत्र हुए, जिनमें सबसे छोटे चेतन बोडोकछार में बस गए, जबकि अन्य दो पुत्र कंदोरा में ही रहे। मूढू बाबा ने 1942 में देह त्याग किया।   निराकार यादव बताते हैं कि महाकुल समाज के पूर्वज कृष्णवंशज थे, जो उड़ीसा के संबलपुर क्षेत्र से पलायन कर छत्तीसगढ़ के धर्मजयगढ़, लैलूंगा और आसपास के क्षेत्रों में बस गए। कहा जाता है कि जब उनके सामने खाड़ूंग नदी पड़ी, तो उन्होंने अपने इष्टदेव का सुमिरन किया और नदी सूख गई — जिससे वे सुरक्षित पार हो सके। धीरे-धीरे महाकुल समाज की आबादी बढ़ी और रायगढ़, जशपुर, बिलासपुर सहित पूरे अंचल में फैल गई।   ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार मूढू बाबा का जन्म 1831 में बोडोकछार गांव के मंगल भगत के घर हुआ था। 1910 में उन्होंने कंदोरा में खसरा नंबर 223 के 14 एकड़ 40 डिसमिल क्षेत्र में आम के पौधे लगाए, जो आज “अमराई” के नाम से प्रसिद्ध है। यही स्थान अब महाकुल समाज के यज्ञ नगर – गोकुलधाम के रूप में प्रतिष्ठित है। मूढू बाबा ने उड़िया भाषा में भागवत पुराण, हरिवंश पुराण और महाभारत के पवित्र ग्रंथों का निर्माण करवाया, जो आज भी सुरक्षित हैं और अष्टमी के दिन गोकुलधाम में पूजा के लिए रखे जाते हैं।   मूढू बाबा का जशपुर राज परिवार से गहरा संबंध था। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान राजा देवशरण सिंह जूदेव ने उन्हें राजसी विवाह समारोह का विशेष न्यौता भेजा था, जिसका प्रमाण आज भी मौजूद है।   1963 से कंदोरा की अमराई में गोकुलाष्टमी मेला प्रारंभ हुआ, जो इस वर्ष अपने 62वें वर्ष में है। अब यह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ में महाकुल समाज की आस्था, एकता और परंपरा का प्रतीक बन चुका है। इस वर्ष के गोकुलाष्टमी शताब्दी पर्व को भव्यता देने के लिए मुख्यमंत्री श्री विष्णु देव साय, पद्मश्री जगेश्वर राम यादव, शिक्षा मंत्री गजेंद्र यादव, प्रांताध्यक्ष परमेश्वर यादव, रणविजय सिंह जूदेव, राधेश्याम राठिया, गोमती साय, रायमुनि भगत और प्रबल प्रताप सिंह जूदेव जैसे कई प्रमुख अतिथि शामिल हो रहे हैं। प्रशासन द्वारा सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए गए हैं, वहीं मेले में दुकानदार अपनी दुकानें सजा रहे हैं और मंच की तैयारी अंतिम चरण में है।   गोकुलाष्टमी पूजा समिति के अध्यक्ष रविशंकर यादव, उपाध्यक्ष कुंवर यादव, कोषाध्यक्ष बिन्नू यादव, सचिव विनोद कुमार यादव एवं सह सचिव गुले यादव अपनी कार्यकारिणी के साथ आयोजन की सफलता हेतु सक्रिय रूप से जुटे हैं।   गोकुलधाम की यह 100 वर्षीय परंपरा आज भी न सिर्फ आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह संदेश देती है —“जहां भक्ति है, वहां वंश की समृद्धि और समाज की एकता सदैव बनी रहती है।”

आलेख : विविधता में एकता – राष्ट्र निर्माण में संस्कृति, कला और परंपराओं की भूमिका

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आलेख : विविधता में एकता – राष्ट्र निर्माण में संस्कृति, कला और परंपराओं की भूमिका भारत की एकता केवल संविधान या कानूनों से संचालित नहीं होती, बल्कि यह हमारे जीवन के हर पहलू में रची-बसी है। यह एकता हमारे त्योहारों, लोककला, संगीत, भाषा, परिधान, भोजन और परंपराओं में सांस लेती है। भारत की सच्ची ताकत उसकी विविधता में छिपी है—जहाँ अलग-अलग धर्म, भाषाएँ और संस्कृतियाँ एक साथ मिलकर एक ऐसा रंगीन मोज़ेक बनाती हैं जो दुनिया में अद्वितीय है। राष्ट्रीय एकता दिवस के अवसर पर हमें यह स्मरण करना चाहिए कि हमारी सांस्कृतिक विविधता केवल पहचान नहीं, बल्कि हमारे राष्ट्र की आत्मा है। कश्मीर की सूफियाना कव्वालियों से लेकर कन्याकुमारी के भरतनाट्यम तक, राजस्थान के लोकगीतों से लेकर नागालैंड के जनजातीय नृत्यों तक, भारत का हर क्षेत्र अपनी विशिष्टता में चमकता है। यह विविधता विभाजन नहीं लाती, बल्कि एक-दूसरे के अनुभवों और भावनाओं को जोड़ती है। जब हम किसी और क्षेत्र के त्योहार में शामिल होते हैं या किसी अन्य भाषा का गीत गुनगुनाते हैं, तब हम अपने राष्ट्र की एकता को और गहराई से महसूस करते हैं। मेले, उत्सव और स्थानीय परंपराएँ केवल मनोरंजन के साधन नहीं हैं, बल्कि वे आपसी मेल-जोल और सांस्कृतिक संवाद के पुल हैं। भारतीय समाज में महिलाओं की भूमिका इस सांस्कृतिक निरंतरता का केंद्र बिंदु है। वे घर से लेकर समाज तक परंपराओं की संवाहक और एकता की प्रतीक हैं। किसी भी त्योहार की तैयारी, लोककला का संरक्षण, पारिवारिक रस्मों का निर्वाह या समुदायिक समन्वय—हर स्तर पर महिलाओं का योगदान अद्वितीय है। वे लोककथाएँ सुनाकर, लोकगीत सिखाकर और बच्चों में परंपरागत मूल्यों को रोपित करके न केवल संस्कृति को जीवित रखती हैं, बल्कि सामाजिक एकजुटता को भी सशक्त बनाती हैं। वास्तव में, महिलाएँ उस अदृश्य शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं जो समाज को भीतर से जोड़ती है। भारत की कला और संगीत केवल सौंदर्य की अभिव्यक्ति नहीं हैं, बल्कि राष्ट्र निर्माण के उपकरण हैं। शास्त्रीय नृत्य की लय, लोकगीतों की आत्मा, नाटकों का संदेश और चित्रकला की भावनाएँ – सब मिलकर नागरिकों में साझा चेतना का निर्माण करती हैं। जब कोई बच्चा स्कूल में भांगड़ा और भरतनाट्यम दोनों सीखता है, या जब किसी कार्यक्रम में कथक और ओडिसी साथ प्रस्तुत होते हैं, तब यह केवल कला नहीं होती – यह एकता की भाषा होती है। यही कारण है कि एकता दिवस जैसे अवसरों पर बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ हमारे राष्ट्रीय चरित्र की जीवंत झलक पेश करती हैं। त्योहार भारत के समाज को जोड़ने वाली सबसे बड़ी शक्ति हैं। दीवाली की रोशनी, ईद का सेवरीं, पोंगल का भात या बैसाखी की फसल – हर त्योहार अपने भीतर साझेदारी और पारस्परिक सम्मान का संदेश रखता है। इन अवसरों पर जब समाज के लोग साथ मिलकर उत्सव मनाते हैं, तो धर्म, भाषा और क्षेत्र की दीवारें स्वतः गिर जाती हैं। ऐसे साझा अनुभव सामाजिक जिम्मेदारी, सहिष्णुता और सहयोग की भावना को जन्म देते हैं। यही भावना भारत को एक ऐसा राष्ट्र बनाती है जहाँ भिन्नताएँ टकराती नहीं, बल्कि मिलकर नई पहचान बनाती हैं। संस्कृति की यह एकता केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि संस्थागत भी है। जहाँ संस्कृति लोगों को जोड़ती है, वहीं शासन और नीतियाँ उस एकता की रक्षा करती हैं। प्रशासनिक संस्थाएँ, कानून व्यवस्था और नीतिगत ढाँचे यह सुनिश्चित करते हैं कि हर नागरिक को अपनी संस्कृति और परंपरा को सुरक्षित रखने की स्वतंत्रता मिले। जब सरकार कला, संगीत, नाटक, लोककला और सांस्कृतिक त्योहारों को प्रोत्साहन देती है, तो वह न केवल कलाकारों का सम्मान करती है, बल्कि समाज की एकजुटता को भी सशक्त बनाती है। भारत की एकता का ताना-बाना कानून और जीवन दोनों के धागों से बुना गया है। संस्कृति, कला, संगीत और विविधता वह सामाजिक गोंद हैं जो हमें एक साथ बाँधते हैं, जबकि संस्थाएँ इस एकता को सुरक्षा और संरचना प्रदान करती हैं। राष्ट्रीय एकता दिवस का यह संदेश हमें याद दिलाता है कि एकता और विविधता विरोधी नहीं, बल्कि परस्पर पूरक मूल्य हैं। राष्ट्र निर्माण केवल साझा शासन से नहीं, बल्कि साझा भावनाओं, परंपराओं और मूल्यों से संभव होता है। जब हम हर संस्कृति को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, तब हम न केवल भारत की आत्मा को समझते हैं, बल्कि उसे और मजबूत भी बनाते हैं। यही वह दृष्टिकोण है जो भारत को एक जीवंत, सशक्त, सामंजस्यपूर्ण और दूरदर्शी राष्ट्र के रूप में स्थापित करता है।

विशेष लेख : भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत: परंपरा, पहचान और नवाचार का समागम,

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निर्मल कुमार भारत की सांस्कृतिक विरासत केवल अतीत का गौरव नहीं, बल्कि भविष्य का मार्गदर्शक भी है। यह विविधता की वह जीवंत परंपरा है जो हज़ारों वर्षों से कई धर्मों, भाषाओं, कलाओं और जीवनशैलियों को अपने भीतर समाहित किए हुए है। आज जब वैश्वीकरण, तकनीकी परिवर्तन और सामाजिक तनाव हमारे चारों ओर गहराते जा रहे हैं, भारत का यह साझा सांस्कृतिक बुनियाद एक ऐसा नैतिक और व्यावहारिक संसाधन बन कर उभरता है जिससे हम न केवल अपने देशवासियों को जोड़ सकते हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी समरसता, सहयोग और सतत विकास का मॉडल प्रस्तुत कर सकते हैं। सह-अस्तित्व की परंपरा और आध्यात्मिक एकता भारत के इतिहास में सह-अस्तित्व की भावना सबसे प्रमुख रही है। हमारे संतों, कवियों और विचारकों ने कभी सीमाओं में विश्वास नहीं किया। कबीर, रैदास, गुरु नानक, संत तुकाराम, मीराबाई और बुल्ले शाह जैसे संतों ने धर्मों के बीच की दीवारों को तोड़कर आध्यात्मिक एकता का मार्ग दिखाया। सूफी और भक्ति आंदोलन ने भारत को एक साझा आध्यात्मिक चेतना दी, जिसने धर्म के नाम पर होने वाले विभाजन को चुनौती दी और प्रेम, करुणा, सेवा और समता को केंद्र में रखा। आज अजमेर शरीफ, निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह, वाराणसी के घाट, अमृतसर का स्वर्ण मंदिर, कोणार्क और मदुरै के मंदिर जैसे स्थल न केवल तीर्थ हैं, बल्कि विविध सांस्कृतिक पहचान के मिलन बिंदु भी हैं। इन स्थलों पर हर वर्ग, धर्म और जाति के लोग समान श्रद्धा से आते हैं। पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक समस्याओं का समाधान भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणाली — जैसे आयुर्वेद, योग, सिद्ध चिकित्सा, वास्तु शास्त्र, पंचगव्य, जैविक खेती और पारंपरिक जल-संरक्षण प्रणाली — आज फिर से प्रासंगिक होती जा रही हैं। COVID-19 महामारी के दौरान जब पूरी दुनिया प्राकृतिक जीवनशैली की ओर मुड़ी, तब भारत के योग और आयुर्वेद को नई वैश्विक मान्यता मिली। रैनी वाटर हार्वेस्टिंग की सदियों पुरानी भारतीय तकनीकें — जैसे कि राजस्थान की बावड़ियां, कर्नाटक की कावेरी प्रणाली और पूर्वोत्तर भारत की बांस आधारित जल निकासी प्रणालियाँ — अब शहरी योजनाओं में शामिल की जा रही हैं। यह ज्ञान केवल ग्रामीण भारत तक सीमित नहीं रहा, बल्कि मुंबई, हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे महानगरों की योजनाओं में भी पारंपरिक जल प्रबंधन पद्धतियों को एकीकृत किया जा रहा है। विविध कलाएँ: जीवित परंपराओं का स्वरूप भारत की कलात्मक विरासत उतनी ही समृद्ध है जितनी कि इसकी आध्यात्मिक परंपरा। वारली, मधुबनी, गोंड, पट्टचित्र और फड़ चित्रकला जैसे जनजातीय और लोक कला रूप हमारी विविधता को जीवंत रखते हैं। कथक, भरतनाट्यम, ओडिसी, मोहिनीअट्टम और बाउल संगीत जैसी कलाएँ आज भी नई पीढ़ियों द्वारा सीखी और प्रस्तुत की जा रही हैं। डिजिटल युग में, इन कलाओं को पुनर्जीवित करने की ज़िम्मेदारी भी तकनीक ने ली है। “क्राफ्ट विलेज”, “गूगल आर्ट्स एंड कल्चर”, और “हुनर हाट” जैसी पहलें कारीगरों और कलाकारों को नए बाज़ार और दर्शक दे रही हैं। इससे न केवल संस्कृति संरक्षित हो रही है, बल्कि आजीविका के अवसर भी बढ़ रहे हैं। जशपुर: आदिवासी विरासत की चमक छत्तीसगढ़ का जशपुर ज़िला इस साझा विरासत की अनदेखी लेकिन अत्यंत मूल्यवान धरोहर है। यह क्षेत्र आदिवासी संस्कृति, पर्यावरणीय संतुलन और हस्तशिल्प कला का केंद्र रहा है। यहाँ की पत्थलगड़ी परंपरा, पारंपरिक जड़ी-बूटी चिकित्सा प्रणाली और नृत्य जैसे सरहुल, कर्मा, दंडा, सुवा और पंथी आदिवासी गौरव के जीवंत रूप हैं। जशपुर के बघिमा और गिंगला जैसे गाँवों में महिलाएं पारंपरिक हस्तशिल्प में माहिर हैं — जैसे बांस की टोकरियाँ, साज-सज्जा की वस्तुएं और स्थानीय प्राकृतिक रंगों से बने कपड़े। ये सिर्फ कलात्मक उत्पाद नहीं, बल्कि पारंपरिक ज्ञान की सजीव पुस्तकें हैं। इस जिले के बच्चों को अगर अपनी परंपरा से जोड़ा जाए तो वे वैश्विक नागरिक बनते हुए भी अपनी जड़ों से जुड़ाव बनाए रख सकते हैं। सांस्कृतिक कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध भारत की सांस्कृतिक विरासत अब केवल सीमाओं के भीतर की बात नहीं रही। भारत-नेपाल के तारा धाम या भारत-भूटान की बौद्ध विरासत पर संयुक्त शोध परियोजनाएँ, बांग्लादेश के साथ साझा भाषा उत्सव, और श्रीलंका में रामायण पर्यटन सर्किट जैसे प्रयास इस बात का प्रमाण हैं कि सांस्कृतिक विरासत कूटनीति का एक मज़बूत माध्यम बन चुकी है। नालंदा विश्वविद्यालय का पुनरुद्धार और बौद्ध सर्किट का विकास भारत की उस विरासत को दोबारा जीवित करने का प्रयास है, जिसने कभी एशिया को बौद्धिक और नैतिक नेतृत्व दिया था। शिक्षा में विरासत की भूमिका राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि विद्यार्थियों को केवल रोजगार के योग्य ही नहीं, सांस्कृतिक रूप से भी सजग और संवेदनशील नागरिक बनाया जाए। स्कूली पाठ्यक्रमों में स्थानीय इतिहास, पारंपरिक ज्ञान और कला को स्थान देने से बच्चे अपनी जड़ों से जुड़ते हैं। देशभर में चल रही “हेरिटेज वॉक”, “लोक उत्सव” और “स्कूल इन म्यूज़ियम” जैसी पहलें इसी सोच का हिस्सा हैं। भविष्य की दिशा भारत की साझा सांस्कृतिक विरासत एक स्थिर स्मारक नहीं है, बल्कि वह गतिशील धरोहर है जो निरंतर विकसित हो रही है। यह सिर्फ़ अतीत की कहानियाँ नहीं सुनाती, बल्कि हमें यह सिखाती है कि सहिष्णुता, विविधता और समावेशिता ही स्थायी प्रगति का मार्ग है। आज जबकि पूरी दुनिया अपनी पहचान की तलाश में असमंजस में है, भारत के पास एक ऐसा सांस्कृतिक मॉडल है जो अतीत की गहराई, वर्तमान की चुनौती और भविष्य की संभावनाओं—तीनों को संतुलित करता है। इस मॉडल को और मज़बूत बनाने के लिए ज़रूरी है कि हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को न केवल संरक्षित करें, बल्कि सक्रिय रूप से उसका उपयोग शिक्षा, रोजगार, सामाजिक समरसता और वैश्विक संवाद के लिए करें। आइए, हम सब मिलकर यह सुनिश्चित करें कि भारत की यह बहुरंगी, बहुस्तरीय, और बहुधर्मी सांस्कृतिक धरोहर केवल किताबों और स्मारकों में न रह जाए, बल्कि हमारी ज़िंदगी की धड़कनों में बनी रहे — आज, कल और आने वाली पीढ़ियों तक। (लेखक निर्मल कुमार अंतर्राष्ट्रीय समाजिक-आर्थिक मामलों के जानकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।)

गंगा-जमुनी तहज़ीब: भारतीय समाज में सद्भाव और एकता का प्रतीक

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निर्मल कुमार (लेखक अंतर्राष्ट्रीय सामाजिक आर्थिक मुद्दों के जानकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।) उत्तरप्रदेश के बहराइच जिले में हाल ही में हुई सांप्रदायिक हिंसा ने एक बार फिर भारत की सामाजिक एकता की बुनियाद को चुनौती दी है। ये घटनाएं केवल कानून-व्यवस्था के लिए खतरा नहीं हैं, बल्कि उस साझा सांस्कृतिक विरासत के लिए भी खतरा हैं जिसने सदियों से भारत की पहचान को परिभाषित किया है। ऐसे समय में, हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों को अपने साझा अतीत को याद करते हुए उन मूल्यों को अपनाने की आवश्यकता है जिन्होंने कभी उन्हें एक-दूसरे से जोड़ा था। भारत का उपमहाद्वीप धार्मिक और सांस्कृतिक मेल-जोल की एक अनमोल धरोहर का घर है। विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा-जमुनी तहज़ीब की संस्कृति, जो हिंदू-मुस्लिम परंपराओं का अनोखा संगम है, इस साझी विरासत का प्रतीक है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जो चीजें हमें जोड़ती हैं, वे उन चीजों से कहीं अधिक मजबूत हैं जो हमें बांटती हैं। गंगा-जमुनी तहज़ीब वह भावना है जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों ने मिलकर पर्व-त्योहार मनाए, और एक-दूसरे के रीति-रिवाजों का सम्मान किया। दिवाली और ईद का मिलकर मनाना, सूफी संतों और भक्ति कवियों के प्रति साझा श्रद्धा, यह सब हमारी संस्कृति में पारस्परिक सम्मान और सह-अस्तित्व का प्रतीक हैं। यह सिर्फ एक साझा अतीत नहीं है बल्कि एक ऐसा भविष्य भी दर्शाता है जहां विविधता को बांटने का कारण नहीं बल्कि एकता का आधार माना जाए। सदियों से हिंदू और मुस्लिम समुदायों ने एक साथ रहते हुए भाषा, कला, संगीत, भोजन और जीवनशैली को साझा किया है। यह सांस्कृतिक मिलन इन दोनों समुदायों की समृद्धि का स्रोत रहा है और इस धरोहर को हमें हर हाल में संजोकर रखना चाहिए, चाहे हालात कैसे भी हों। धर्म के प्रति सम्मान: शांति और सद्भाव की बुनियाद है ऐसे कठिन समय में, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक-दूसरे के धार्मिक विश्वासों का सम्मान ही शांति और सामाजिक सौहार्द की बुनियाद है। मंदिरों और मस्जिदों के प्रति आदर, त्योहारों और रीति-रिवाजों का सम्मान, यही वह नींव है जो हमें एकजुट रखती है। सच्चा धर्म तभी होता है जब हम इस विविधता का सम्मान करें, इसे बांटने के साधन के रूप में नहीं बल्कि समाज को जोड़ने के एक सशक्त माध्यम के रूप में देखें। हिंदू और मुस्लिम समुदायों ने हमेशा एक-दूसरे की धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में भाग लिया है। सूफी परंपराओं में हिंदू देवी-देवताओं का जिक्र और हिंदू मंदिरों में इस्लामी वास्तुकला का प्रभाव इस गहरी सांस्कृतिक बुनावट के जीवंत उदाहरण हैं। बहराइच, जो सूफी संत सैयद सालार मसूद गाज़ी से जुड़ा हुआ है, वहां इस साझी विरासत का विशेष महत्व है। लेकिन हाल की घटनाओं ने इस विरासत को चुनौती दी है। इस समय यह जरूरी है कि हम उन तत्वों से सावधान रहें जो नफरत और बंटवारे का खेल खेलते हैं। ये लोग, चाहे राजनीतिक स्वार्थ के लिए हों या कट्टरपंथी एजेंडा के लिए, समाज में विभाजन पैदा करके ही अपना लाभ देखते हैं। उनके नफरत भरे भाषण, अफवाहें और प्रचार केवल हिंसा को बढ़ावा देते हैं। सोशल मीडिया के इस दौर में जहां सही-गलत जानकारी तेजी से फैलती है, यह जरूरी है कि हम इन कोशिशों को समझें और इनसे बचें। हमारी असली ताकत नफरत की इन आवाजों को अस्वीकार करने में है। हमें हिंसा के बजाय संवाद, सहानुभूति और समझ का रास्ता अपनाना चाहिए। इस हिंसा के बाद एक और जरूरी सबक यह है कि कानून पर भरोसा बनाए रखें। किसी भी सभ्य समाज में न्याय की प्राप्ति कानून के जरिए ही होनी चाहिए, न कि भीड़ के गुस्से से। भीड़तंत्र केवल अराजकता और विभाजन को गहरा करता है। भारत का न्यायिक तंत्र, हालांकि इसमें सुधार की गुंजाइश है, फिर भी सभी नागरिकों के लिए न्याय और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से बना है। अगर हम हिंसा का रास्ता चुनते हैं, तो न केवल कानूनी प्रक्रिया कमजोर होती है, बल्कि समाज में अराजकता भी बढ़ती है। हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि वे कानून में भरोसा रखें और जहां जरूरी हो उसे सुधारने की दिशा में काम करें, न कि खुद कानून अपने हाथ में लें। जब हम कानूनी रास्ता अपनाते हैं, तो यह सुनिश्चित होता है कि किसी भी अपराध के लिए उचित न्याय मिले और हिंसा भड़काने वालों को सजा दी जाए। किसी भी शिकायत का समाधान हिंसा से करना किसी भी शांतिपूर्ण समाज का रास्ता नहीं है और न ही यह हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के मूल्यों का सही प्रतिनिधित्व करता है। बहराइच हिंसा के बाद, यह जरूरी है कि दोनों समुदाय न केवल घावों को भरें बल्कि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए भी एकजुट हों। गंगा-जमुनी तहज़ीब की धरोहर को केवल अतीत की याद के रूप में नहीं बल्कि एक जीवंत आदर्श के रूप में फिर से अपनाना जरूरी है जो हमारे वर्तमान और भविष्य को दिशा दे सके। दोनों धार्मिक समुदायों के नेताओं को संवाद के माध्यम से विश्वास का निर्माण करना चाहिए और अपने अनुयायियों को उन सांस्कृतिक धरोहरों की याद दिलानी चाहिए जो उन्हें जोड़ती हैं। नागरिक समाज, मीडिया और शैक्षिक संस्थानों को भी विभाजनकारी कथाओं का मुकाबला करने और एकता की कहानियों को बढ़ावा देने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जो चीजें हमें जोड़ती हैं, वे उन चीजों से कहीं अधिक मजबूत हैं जो हमें बांटती हैं। हिंदू और मुस्लिम समुदायों ने मिलकर सदियों में एक समृद्ध सांझा विरासत बनाई है और एक घटना या हिंसा का दौर इसे खत्म नहीं कर सकता। शांति, सम्मान और कानून पर भरोसे का रास्ता चुनकर हम न केवल अपने अतीत का सम्मान करते हैं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर भविष्य भी सुनिश्चित करते हैं। आज, गंगा-जमुनी तहज़ीब के मूल्यों को अपनाने और हमें बांटने की कोशिश करने वाली शक्तियों को अस्वीकार करने का समय है। (इस लेख में छपी तस्वीर गूगल से हैदराबाद खबर से ली गई है।ख़बर ज़नपक्ष आभार व्यक्त करता है।)

जिला प्रशासन-पहाड़ी बकरा-जशप्योर की कोशिश रंग लाई,देशभर से बाइकर्स जुटे

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जशपुर 08 नवम्बर 2024- प्रशासन और पहाड़ी बकरा और जशप्योर के सहयोग से जशपुर में पर्यटन एवं एडवेंचर स्पोर्ट्स को बढ़ावा देने के लिए आयोजित होने वाली बाइक यात्रा में दूर-दूर से लोग आकर्षित हो रहे हैं। जशपुर में 6 से 10 नवम्बर तक विभिन्न पर्यटन स्थल का यात्रा करेंगे पुणे से तुषार गोवर्धन और सागर तथा मुंबई से शुभम गंभीर के साथ-साथ ओडिशा से आकाश, उत्तम, उत्कर्ष और बंगाल से अमित घोष जैसे बाइकर्स ने वेबसाइट पर देशदेखा क्लाइंबिंग सेक्टर के बारे में पढ़ने के बाद इस खूबसूरत जगह की यात्रा करने के लिए प्रेरित हुए हैं और बिलासपुर से अपनी यात्रा शुरू कर दी है। पहला पड़ाव जशपुर बनाएंगे। यहां वे स्थानीय व्यंजनों का स्वाद चखेंगे और देशदेखा क्लाइंबिंग सेक्टर में रॉक क्लाइंबिंग का रोमांच अनुभव करेंगे। इसके बाद, यात्री पांड्रापाट में ऑफबीट कैंपिंग का आनंद लेने के लिए रवाना होंगे, और फिर मक्करभंजा जलप्रपात की यात्रा करेंगे। यात्रा के दौरान, वे स्वच्छ भारत अभियान को बढ़ावा देने के लिए कई स्थानों की सफाई भी करेंगे। जशपुर टूर के दौरान सभी पर्यटकों को जशप्योर के सेहतमंद एवं पौष्टिक उत्पाद जैसे की मिलेट कूकीज, पास्ता, लाडू एवं विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक चायों के स्वाद से भी रूबरू कराया जायेगा ।पर्यटक महुआ सेंटर और मंथन फ़ूड लैब में जशपुर की आदिवासी महिलाओं से उनके अनुभव साझा करंगे | बातचीत करके बाइकर्स स्थानीय संस्कृति और जीवनशैली के बारे में अधिक जान पाएंगे। खासकर, तुषार जो खुद एक जैविक किसान भी हैं, वे स्थानीय आदिवासियों से जैविक खेती के तरीकों के बारे में सीखने के लिए उत्सुक हैं। इस तरह की पहल न केवल स्थानीय पर्यटन को बढ़ावा देगी बल्कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता भी फैलाएगी। बाइकर्स के इस साहसिक कार्यक्रम से जशपुर और आसपास के क्षेत्रों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलेगी। स्थानीय लोगों के लिए भी यह एक अवसर होगा कि वे अपने क्षेत्र की खूबसूरती को एक नए नजरिए से देखें। यह यात्रा जशपुर जिला प्रशासन के उन प्रयासों का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिनके माध्यम से जिले को एक ऐसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा रहा है जहां पर्यावरण अनुकूल और स्थायी पर्यटन मॉडल को बढ़ावा दिया जाता है। यह यात्रा न केवल पर्यटकों को प्राकृतिक सौंदर्य का अनुभव करने का अवसर प्रदान करती है, बल्कि स्थानीय समुदायों के जीवन और संस्कृति से भी रूबरू कराती है। जशपुर जिला प्रशासन द्वारा किए जा रहे इन प्रयासों से न केवल जिले का विकास होगा बल्कि यह अन्य क्षेत्रों के लिए भी एक प्रेरणा का स्रोत बनेगा।

कलेक्टर ने राज्य स्थापना दिवस पर ‘एक दिया छत्तीसगढ़ के नाम’ की अपील की, कहा – ये हमारी परंपरा और पहचान का प्रतीक

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जशपुर, 30 अक्टूबर 2024। आगामी छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस को लेकर जिला प्रशासन ने तैयारियां पूरी कर ली हैं। इस अवसर पर जिला मुख्यालय सहित जिले के सभी प्रमुख नगरों में दीप प्रज्जवलन किया जाएगा। जिला कलेक्टर  रोहित व्यास ने एक विशेष संदेश में सभी नागरिकों से अपील की है कि वे भी 1 नवंबर की शाम को अपने घरों में दीप जलाएं और राज्य की गौरवशाली परंपरा में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें। कलेक्टर ने बताया कि दीप प्रज्जवलन का आयोजन केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि एकता, समर्पण, और राज्य की संस्कृति के प्रति सम्मान का प्रतीक है। उन्होंने कहा कि दीप जलाने से न केवल घर-आंगन रोशन होते हैं, बल्कि यह राज्य के प्रति नागरिकों की भावनाओं और जुड़ाव को भी दर्शाता है। उनका मानना है कि इस प्रतीकात्मक पहल से हर नागरिक अपनी मिट्टी से जुड़ेगा और इस खास दिन का महत्व हर घर में महसूस किया जाएगा। कलेक्टर ने कहा, “छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस का दिन केवल एक तारीख नहीं, बल्कि हमारे राज्य की सांस्कृतिक धरोहर और उसकी आत्मा का हिस्सा है। यह दिन हमें अपने राज्य की ऐतिहासिक यात्रा और उसकी संघर्षपूर्ण उपलब्धियों की याद दिलाता है। दीप प्रज्जवलन के माध्यम से हम न केवल अपने राज्य के लिए सम्मान जताते हैं, बल्कि अपनी नई पीढ़ी को भी इस विशेष परंपरा से जोड़ते हैं।” दीप जलाने की अपील में नागरिकों से राज्य के प्रति अपने योगदान और प्यार को दर्शाने का आग्रह किया गया है। इस आयोजन का मुख्य उद्देश्य नागरिकों को राज्य के इतिहास, संस्कृति, और परंपराओं के प्रति जागरूक करना और नई पीढ़ी को इसकी महत्ता समझाना है।

रौतिया समाज के सोहराय करम पूजा में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय टेलीफोनिकली हुए शामिल , समाज के लिए 50 लाख की भवन निर्माण की घोषणा

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जशपुर/कुनकुरी,29 अक्टूबर 2014 – अखिल भारतीय रौतीया समाज द्वारा 27 तारीख को कुनकुरी के कंडोरा में भव्य सोहराय करम पूजा का आयोजन किया गया, जिसमें समाज के हजारों लोग अपनी संस्कृति और परंपराओं के प्रति प्रेम दिखाने पहुंचे। इस आयोजन में समाज के सभी  पुरुष, महिलाएं और बच्चे शामिल हुए और कार्यक्रम को सफल बनाने में अपना योगदान दिया। रौतिया समाज के नेता मीनू प्रसाद सिंह ने जानकारी देते हुए बताया कि कार्यक्रम में विशेष अतिथि के रूप में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय को आमंत्रित किया गया था। हालांकि, खराब मौसम के कारण उनका हेलीकॉप्टर रायपुर से उड़ान नहीं भर सका और दो बार प्रयास करने के बाद भी वे समारोह में शामिल नहीं हो पाए। मुख्यमंत्री ने इस बात पर खेद जताते हुए मोबाइल के माध्यम से समाज को संबोधित किया और 50 लाख रुपए की लागत से कंडोरा में रौतीया समाज के लिए भवन निर्माण की घोषणा की। उन्होंने इस आयोजन के लिए समाज को बधाई दी और भविष्य में कार्यक्रम में शामिल होने का वचन दिया। इस कार्यक्रम में राजनांदगांव सांसद संतोष पांडे, बस्तर सांसद महेश कश्यप और रायगढ़ सांसद राधेश्याम राठिया ने भी उपस्थिति दर्ज कराई। उन्होंने करम राजा की पूजा अर्चना की और समाज के साथ मांदर बजाकर पारंपरिक नृत्य में भाग लिया। कार्यक्रम को सफल बनाने में समाज के कार्यकारी अध्यक्ष प्रताप सिंह का महत्वपूर्ण योगदान रहा। राष्ट्रीय अध्यक्ष ओ.पी. साय, प्रांतीय अध्यक्ष घनश्याम सिंह,रंजीत सिंह,अशोक सिंह,श्रीमती सपना सिंह, श्रीमती अनिता सिंह और कई अन्य पदाधिकारी व समाज के सदस्य इस आयोजन में उपस्थित रहे और इसे सफल बनाने में सहयोग दिया।  

आदिकालीन प्रकृतिपूजक रौतिया समाज ने मनाया करमा पर्व,पारंपरिक वेशभूषा में पूरी रात जमकर नाचे,,देखें तस्वीरें

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जशपुर/कुनकुरी,24 अक्टूबर 2024 – अखिल भारतीय रौतिया समाज के कुनकुरी मंडल में जनजातीय समाज का पवित्र त्यौहार करमा महोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया।यह पर्व करमा अर्थात कर्म देवता की आराधना करते हुए घर-परिवार,समाज,पृथ्वी के समस्त प्राणियों की सुख-समृद्धि की कामना करने का त्यौहार है।जिसमें सभी लोग करम वृक्ष की डगाल लाकर पूजा स्थल में गाड़ते हैं और रातभर लोकगीतों के साथ पारंपरिक वाद्ययंत्रों ( ढोलक,मांदर,नगाड़ा इत्यादि)बजाते हुए करम नृत्य करते हैं। अखिल भारतीय रौतिया समाज के छत्तीसगढ़ प्रदेश अध्यक्ष घनश्याम रौतिया विशेष रूप से आज के युवाओं को अपनी प्राचीन लोकसंस्कृति, परम्परा, पूजा-पद्धति से जोड़ने के लिए रौतिया भवन पहुंचे हुए थे। दरअसल, रौतिया समाज कुछ गलतफहमियां और दस्तावेजों में हुई/की गईं त्रुटियों के कारण छत्तीसगढ़ में जनजाति समुदाय की सूची में नहीं जुड़ पाया।बीते तीन दशकों से इस विषय को लेकर समाज प्रमुखों के द्वारा सत्ता में बैठी राजनैतिक पार्टियों के सामने खुद को आदिवासी घोषित कराने के लिए लगातार प्रयास किया गया।पिछले विधानसभा चुनाव और फिर लोकसभा चुनाव में भाजपा ने डबल इंजन की सरकार में समाज की मांग पूरी करने का भरोसा दिया था। अखिल भारतीय रौतिया समाज के कर्मचारी संघ के प्रदेश अध्यक्ष मीनू सिंह कहते हैं कि हम वे आदिवासी हैं जिन्हें संविधान लागू होते समय सूचीबद्ध नहीं किया गया।1954 से इसके प्रयास शुरू हुए जो आज तक जारी है।वह अलग विषय है।हम यहां करम त्यौहार मनाने इकट्ठे हुए हैं।यह त्यौहार आधुनिकता के संक्रमण से छूट रहा था,जिसे हम पुनः गौरवशाली ढंग से स्थापित कर रहे हैं।27 अक्टूबर को कंडोरा आम बगीचा में राष्ट्रीय स्तर पर यह त्यौहार मनाने जा रहे हैं।

*मुख्यमंत्री की धर्मपत्नी श्रीमती कौशल्या साय ने ग्रामीण महिलाओं के साथ किया करमा नृत्य*

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*पानी करमा के अवसर पर राज्य में अच्छी फसल और वर्षा के लिए की प्रार्थना *जशपुर, 20 अक्टूबर 2024/* मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के बगिया स्थित निज निवास में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की धर्मपत्नी श्रीमती कौशल्या साय ने स्थानीय ग्रामीण महिलाओं के साथ करमा त्यौहार मनाया। पानी करमा पर्व के अवसर पर नदी का जल अर्पण कर पीपल वृक्ष की पूजा करते हुए स्थानीय ग्रामीण महिलाओं के साथ करमा नृत्य में भाग लिया। ग्रामीणों के साथ मिल कर करम देवता की स्तुति करते हुए ग्राम एवं पूरे राज्य की खुशहाली और समृद्धि के साथ अंचल में अच्छी वर्षा की कामना के लिए अर्चना की। इस अवसर पर पूरे ग्राम की महिलाएं मुख्यमंत्री निवास में करम वृक्ष की डाल के साथ आईं जहां करमा वृक्ष की डाल को गाड़ कर सभी ने हर्षोल्लास से श्रीमती साय के साथ करमा नृत्य किया। इस अवसर पर श्रीमती कौशल्या साय ने बताया कि दशहरा के बाद स्थानीय महिलाएं इंद्र देवता को प्रसन्न कर ग्राम एवं प्रदेश में अच्छी वर्षा की कामना लेकर पानी करमा पर्व मनातीं हैं। इस अवसर पर दिन भर महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं और जंगल से करमा वृक्ष की लकड़ी लाकर हमारे निवास में नदी से जल लाकर पीपल वृक्ष के नीचे जल अर्पण कर पूजा करतीं है और इसके पश्चात ग्राम में जाकर रात भर पूजा आराधना एवं करमा नृत्य करतीं हैं। उन्होंने आज करम त्यौहार और करवाचौथ पर सभी को बधाई देते हुए बताया कि पतिदेव अभी दरिमा से निकले हैं।दो घण्टे बाद पहुंचेंगे तब तक करवाचौथ की तैयारी कर लूँगी।

मुख्यमंत्री साय ने बस्तर दशहरा के लिए “दसराहा पसरा” का किया लोकार्पण, जनजातीय संस्कृति की विशिष्ट धरोहर का हुआ संरक्षण

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जगदलपुर, 15 अक्टूबर,2024 – छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने बस्तर दशहरा उत्सव के लिए समर्पित “दसराहा पसरा” का लोकार्पण किया, जो बस्तर की जनजातीय संस्कृति और परंपराओं को संरक्षित और प्रदर्शित करने का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनेगा। 2 करोड़ 99 लाख 78 हजार की लागत से जीर्णोद्धारित इस स्थल का उद्देश्य बस्तर दशहरा की विभिन्न रस्मों और रीति-रिवाजों को सहेजकर पर्यटकों और आमजन को सुलभ जानकारी प्रदान करना है। मुख्यमंत्री साय ने मुरिया दरबार में शामिल होने के दौरान, दंतेश्वरी मंदिर के समीप पुराने तहसील कार्यालय को “दसराहा पसरा” के रूप में पुनर्निर्मित कर जनजातीय परंपराओं का सम्मान किया। उन्होंने बस्तर दशहरा की रस्मों के प्रतीकात्मक रथ, देवी-देवताओं के प्रतीकों और प्रदर्शनी की सराहना की, और फोटो प्रदर्शनी के समीप फोटो खिंचवाई। यह स्थल बस्तर दशहरा उत्सव के 75 दिवसीय समारोह में होने वाली प्रमुख रस्मों जैसे पाट जात्रा, डेरी गढ़ाई, काछन गादी, रैला देवी पूजा, जोगी बिठाई, रथ परिक्रमा, बेल पूजा और अन्य महत्वपूर्ण परंपराओं को जीवंत रूप में प्रस्तुत करेगा। बस्तर दशहरा न केवल छत्तीसगढ़, बल्कि देशभर में अनूठी पहचान रखने वाला त्योहार है, जो बस्तर के जनजातीय समुदायों की देवी-देवताओं के प्रति आस्था और समर्पण का अद्वितीय उदाहरण है। मुख्यमंत्री साय ने इस पहल को बस्तर की सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण और विश्व पटल पर बस्तर की परंपराओं को प्रस्तुत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम बताया। इस अवसर पर वनमंत्री केदार कश्यप, सांसद महेश कश्यप, कांकेर सांसद भोजराज नाग, विधायक किरण देव, कोंडागांव विधायक लता उसेण्डी, चित्रकोट विधायक विनायक गोयल, दंतेवाड़ा विधायक चैतराम अटामी, महापौर सफीरा साहू और अन्य गणमान्य जनप्रतिनिधियों के साथ कमिश्नर डोमन सिंह, आईजी सुंदरराज पी., कलेक्टर हरिस एस. और एसपी शलभ सिन्हा मौजूद रहे। बस्तर दशहरा, बस्तर की जनजातीय संस्कृति की समृद्ध धरोहर को संरक्षित करने और उसे दुनिया के सामने लाने का एक महान आयोजन है, जो इस क्षेत्र की विशिष्ट परंपराओं और रीति-रिवाजों को जीवंत बनाए रखता है।