समसामयिक लेख : झूठ की क़ीमत: ग़लत जानकारी का प्रभाव और समाज पर उसका संकट

निर्मल कुमार

आज की डिजिटल दुनिया में, जहां जानकारी एक क्लिक में फैल जाती है, वहाँ गलत जानकारी (misinformation) का प्रसार एक वैश्विक संकट बन चुका है। फोटोशॉप की गई तस्वीरें, झूठी खबरें और षड्यंत्र के सिद्धांत — इन सबने न केवल जनविश्वास को चोट पहुंचाई है, बल्कि लोगों की जान खतरे में डाली है और सामाजिक स्थिरता को भी गंभीर नुकसान पहुँचाया है। ये झूठ जितनी तेजी से फैलते हैं, उन्हें उतनी ही मुश्किल से सुधारा जा सकता है। लोकतांत्रिक देशों में यह गलत जानकारी चुनाव परिणामों की वैधता पर सवाल उठाने और हिंसा भड़काने का जरिया बन जाती है, जबकि अधिनायकवादी शासन इस जानकारी को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं — असहमति को दबाने और जनता की सोच को नियंत्रित करने के लिए। इस पूरी प्रक्रिया में सच सबसे बड़ा शिकार बन जाता है।

गलत जानकारी कई स्रोतों से जन्म ले सकती है। कई बार यह अज्ञानता, अधूरी जानकारी या गलतफहमी का परिणाम होती है। लेकिन वर्तमान समय में अधिकतर झूठ योजनाबद्ध ढंग से फैलाए जाते हैं — सोच-समझकर, किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए।
राजनीतिक दल इसका उपयोग जनमत को मोड़ने या विरोधियों को बदनाम करने के लिए करते हैं। विदेशी ताकतें इसे दूसरे देशों को अस्थिर करने के लिए इस्तेमाल करती हैं। कुछ प्रभावशाली व्यक्ति, स्वयंभू विशेषज्ञ या सोशल मीडिया इनफ्लुएंसर अपने प्रसिद्धि, प्रभाव या आर्थिक लाभ के लिए झूठी जानकारी फैलाते हैं। चाहे मंशा कुछ भी हो, परिणाम एक जैसे होते हैं — सच्चाई का क्षरण, समाज का विभाजन और लोकतंत्र की नींव पर प्रहार।

भारत भी इस संकट से अछूता नहीं है। 22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के बाद देशभर में झूठी खबरों का सिलसिला चल पड़ा। सोशल मीडिया, यूट्यूब चैनलों, कुछ तथाकथित समाचार पोर्टलों और प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा फैलाया गया यह भ्रम था कि देश में मुस्लिमों और कश्मीरी नागरिकों पर बदले की भावना से हमले किए जा रहे हैं। कुछ वीडियो और तस्वीरें वायरल की गईं, जिनमें मारपीट या हमले के दृश्य थे, और उन्हें हालिया आतंकवादी घटना से जोड़ दिया गया।

लेकिन जब इन दावों की गहराई से पड़ताल की गई — कई स्वतंत्र फैक्ट-चेकिंग प्लेटफ़ॉर्म्स और पुलिस रिपोर्ट्स द्वारा — तो ज़्यादातर घटनाएं या तो पुरानी निकलीं, या उनका आतंकवाद से कोई संबंध नहीं था। कुछ मामले निजी दुश्मनी, संपत्ति विवाद या सामान्य आपराधिक गतिविधियों से जुड़े हुए थे। इन झूठी खबरों ने भारत की छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नुकसान पहुंचाया और आंतरिक सामाजिक तनाव को हवा दी।

इस तरह की गलत जानकारी न केवल अफवाह फैलाती है, बल्कि समाज में संदेह और नफरत का ज़हर भी घोलती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जानबूझकर फैलाए गए झूठ के बीच की रेखा बहुत बारीक होती है। लेकिन जब कोई व्यक्ति या संस्था बार-बार झूठी जानकारी फैलाए, और उसके कारण समाज में भय या हिंसा उत्पन्न हो, तो उनकी जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। ऐसे लोगों को सामाजिक और कानूनी स्तर पर ज़िम्मेदार ठहराया जाना ज़रूरी है।

सरकार और न्यायपालिका को भी चाहिए कि वे जानबूझकर फैलाई गई गलत जानकारी के विरुद्ध कठोर कार्रवाई करें, विशेषकर जब वह राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था या सामाजिक सौहार्द को नुकसान पहुंचाए। परंतु यह कार्रवाई विचारों की अभिव्यक्ति को दबाने के रूप में नहीं, बल्कि हानिकारक आचरण को रोकने के रूप में की जानी चाहिए। विचार का विरोध तब आवश्यक है जब वह विचार किसी व्यक्ति या समुदाय के विरुद्ध नफरत फैलाता है या हिंसा को प्रोत्साहित करता है।

फर्जी खबरों का खंडन करना तो आवश्यक है ही, लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है उन व्यक्तियों और संस्थाओं की पहचान करना जो बार-बार समाज को भ्रमित करने का प्रयास करते हैं। जब हम ऐसे झूठ फैलाने वालों को चुनौती देते हैं, तब हम सिर्फ तथ्यों की नहीं, बल्कि लोकतंत्र, सहिष्णुता और सत्यनिष्ठा की रक्षा करते हैं।

झूठे विमर्शों से जूझना आज एक राष्ट्रीय जिम्मेदारी बन चुका है। तकनीक के इस युग में जहां एक झूठ लाखों लोगों तक मिनटों में पहुंच सकता है, वहीं सच की रक्षा करने के लिए जागरूकता, जिम्मेदारी और संवेदनशीलता की भी उतनी ही आवश्यकता है।

आज जब भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में खड़ा है, तब यह और अधिक आवश्यक हो गया है कि हम सत्य के पक्ष में खड़े हों। झूठ से लड़ना केवल एक सूचना युद्ध नहीं, यह संविधान, सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता की रक्षा का कार्य है ।

(लेखक निर्मल कुमार वैश्विक आर्थिक व सामाजिक मामलों के जानकर हैं।यह उनके निजी विचार हैं।)