निर्मल कुमार
(लेखक आर्थिक व सामाजिक मामलों के जानकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।)
कोई भी कानून, सामाजिक पूर्वाग्रह, या राजनीतिक दबाव, संविधान के इस मूल अधिकार को कमजोर नहीं कर सकता।
= सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐतिहासिक निर्णय में उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा अधिनियम, 2004 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट के पूर्ववर्ती फैसले को खारिज कर दिया। यह अधिनियम उत्तर प्रदेश राज्य में मदरसों की स्थापना, मान्यता, पाठ्यक्रम और प्रशासन को नियंत्रित करने के लिए एक व्यापक कानूनी ढांचा प्रदान करता है। इस अधिनियम के तहत, मदरसों की निगरानी और प्रबंधन के लिए उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड की स्थापना की गई थी।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने इस निर्णय को सुनाते हुए कहा कि सरकार को मदरसा शिक्षा के लिए नियमन बनाने का अधिकार है और यह संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप है।
इस निर्णय ने मुस्लिम समुदाय और मदरसा शिक्षा से जुड़े लोगों के बीच न्याय और समानता की भावना को प्रबल किया है। संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के तहत अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उन्हें स्वतंत्र रूप से संचालित करने का अधिकार दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस अधिकार की पुष्टि करता है और स्पष्ट करता है कि कोई भी कानून, सामाजिक पूर्वाग्रह, या राजनीतिक दबाव संविधान के इस मूल अधिकार को कमजोर नहीं कर सकता। यह निर्णय संविधान की सर्वोच्चता को एक बार फिर स्थापित करता है और भारत के लोकतंत्र के स्थायित्व को सुनिश्चित करता है।
मदरसों की ऐतिहासिक भूमिका को समझने की आवश्यकता है। इन संस्थानों ने पारंपरिक धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाई है। हालांकि, वर्तमान युग में शिक्षा केवल धार्मिक या सांस्कृतिक संरक्षण तक सीमित नहीं है। इसे आधुनिक विज्ञान, प्रौद्योगिकी, गणित, चिकित्सा, और उद्यमिता जैसे क्षेत्रों के साथ जोड़ना समय की आवश्यकता है। यह कदम न केवल मदरसा शिक्षा को प्रासंगिक बनाएगा, बल्कि इसे समुदाय की सामाजिक-आर्थिक प्रगति के एक प्रभावी माध्यम में बदल देगा।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मुस्लिम समुदाय के लिए आत्मचिंतन और नवाचार का एक स्वर्णिम अवसर प्रदान करता है। इसे एक अवसर के रूप में लेते हुए, मदरसों को अब आधुनिक शिक्षण पद्धतियों, डिजिटल उपकरणों और कौशल विकास कार्यक्रमों को अपनाना चाहिए। मदरसों का पाठ्यक्रम इस प्रकार विकसित किया जाना चाहिए, जो छात्रों को धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ मुख्यधारा की शिक्षा में भी प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार कर सके। यह न केवल समुदाय के युवाओं को रोजगार के बेहतर अवसर देगा, बल्कि उन्हें समाज के विकास में सक्रिय योगदान देने में सक्षम बनाएगा।
यह निर्णय उन संवैधानिक मूल्यों को भी मजबूत करता है जो भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला हैं। कानून के समक्ष समानता का सिद्धांत, जो अनुच्छेद 14 में निहित है, यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार किया जाए, चाहे उनकी धार्मिक, जातीय, या सांस्कृतिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो। इस फैसले ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि न्यायपालिका सामाजिक और राजनीतिक पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर संविधान के प्रावधानों की रक्षा करती है। यह निर्णय अल्पसंख्यकों को यह भरोसा दिलाता है कि न्यायपालिका उनकी आवाज सुनने और उनके अधिकारों की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध है।
मुस्लिम समुदाय को इस अवसर का उपयोग शिक्षा के माध्यम से अपनी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए करना चाहिए। मदरसों को ऐसे केंद्रों में बदलना चाहिए, जो न केवल धार्मिक शिक्षा दें, बल्कि विज्ञान, गणित, प्रौद्योगिकी और भाषा जैसे विषयों में भी छात्रों को उत्कृष्टता प्रदान करें। विदेशी विश्वविद्यालयों के साथ साझेदारी, डिजिटल लर्निंग प्लेटफॉर्म, और अनुसंधान केंद्रों की स्थापना से मदरसा शिक्षा को एक नई दिशा दी जा सकती है। इसके साथ ही, लड़कियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है ताकि समाज का प्रत्येक वर्ग सशक्त हो सके।
यह निर्णय न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह समाज के लिए एक प्रेरणास्रोत भी है। यह अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय, को यह समझने का अवसर देता है कि संविधान ही उनके अधिकारों का सबसे सशक्त संरक्षक है। इसके साथ ही, यह भी आवश्यक है कि समुदाय संविधान और न्यायिक प्रणाली पर अपना विश्वास बनाए रखे। यह निर्णय एक संदेश है कि केवल संविधान और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के माध्यम से ही सामाजिक न्याय और समरसता प्राप्त की जा सकती है।
आज का यह फैसला न केवल मदरसा शिक्षा के संवैधानिक अधिकारों को सुदृढ़ करता है, बल्कि यह समुदाय को आत्मनिर्भर बनने और आधुनिक शिक्षा को अपनाने के लिए प्रेरित करता है। यह शिक्षा ही है जो किसी भी समुदाय को सामाजिक और आर्थिक समृद्धि की ओर ले जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय केवल न्यायालय के प्रति विश्वास को पुनः स्थापित नहीं करता, बल्कि यह एक प्रेरणा है कि शिक्षा के माध्यम से समाज के सभी वर्ग अपने अधिकारों का उपयोग कर सकते हैं।
मुस्लिम समुदाय के लिए यह समय आत्मचिंतन और कार्य करने का है। उन्हें समझना होगा कि शिक्षा ही वह पुल है जो उन्हें पिछड़ेपन से प्रगति तक ले जा सकता है। यह निर्णय केवल मदरसों के लिए नहीं, बल्कि पूरे समुदाय के लिए एक दिशा-सूचक है। जब समुदाय अपने अधिकारों और कर्तव्यों को समझकर संविधान के साथ चलने का निर्णय करेगा, तभी सामाजिक न्याय और समृद्धि का सपना साकार होगा।