कुरान के सन्देश का दुरुपयोग: कट्टरपंथ के खतरों को समझना और वास्तविक इस्लामिक शिक्षाओं को उजागर करना

निर्मल कुमार 

(लेखक निर्मल कुमार सामाजिक व आर्थिक मामलों के जानकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।)

न्यू ऑरलियन्स में शम्सुद्दीन जब्बार के हमले की पृष्ठभूमि ने एक बार फिर यह उजागर किया है कि कैसे कट्टरपंथी सोच और धार्मिक ग्रंथों के गलत उपयोग से गंभीर परिणाम हो सकते हैं। इस घटना में कुरान के 9:111 आयत का हवाला देते हुए इसे हिंसा का आह्वान बताया गया। लेकिन यह व्याख्या न केवल त्रुटिपूर्ण है, बल्कि बेहद हानिकारक भी है। कुरान के वास्तविक संदर्भ और उसकी मूल शिक्षाओं को समझने के लिए हमें यह जानना होगा कि कुरान शांति, न्याय और करुणा की बात करता है।

कुरान सिर्फ कानूनों और आदेशों का संग्रह नहीं है, बल्कि यह 23 वर्षों के दौरान प्रकट हुई एक ऐसी रहस्योद्घाटन है जो पैगंबर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और प्रारंभिक मुस्लिम समुदाय के जीवन की विशिष्ट परिस्थितियों को संबोधित करती है। आयत 9:111 सूरह अत-तौबा का हिस्सा है, जो उस समय प्रकट हुई थी जब मुस्लिम समुदाय को अरब के शत्रुतापूर्ण कबीलों से अत्यधिक उत्पीड़न और आक्रमण का सामना करना पड़ रहा था। इस आयत को अक्सर संदर्भ से हटाकर उद्धृत किया जाता है, जबकि यह विश्वासियों और अल्लाह के बीच उस वचन का उल्लेख करती है जिसमें विश्वासियों से अपने धर्म की रक्षा के लिए, यदि आवश्यक हो, बलिदान करने की बात कही गई है। यह एक न्यायपूर्ण कारण के लिए बलिदान की भावना को दर्शाता है, न कि हिंसा के लिए खुले आह्वान को।

संदर्भ का महत्व: कुरान को समझने की सही दृष्टि

कुरान को सही ढंग से समझने के लिए इसके संदर्भ को पहचानना अत्यंत आवश्यक है। इस्लामी व्याख्या (तफ़सीर) के विद्वान इस बात पर जोर देते हैं कि कुरान की प्रत्येक आयत एक विशेष परिस्थिति को संबोधित करती है और इसे कुरान के व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए।
आयत 9:111 को उस समय के संदर्भ से अलग करके देखना गलत होगा जब मुस्लिम समुदाय के अस्तित्व पर संकट था। इसके अलावा, इस्लामी विद्वानों ने हमेशा ऐसी आयतों के दुरुपयोग की निंदा की है। वे इस बात पर जोर देते हैं कि जिहाद, जिसे अक्सर “पवित्र युद्ध” के रूप में गलत समझा जाता है, मुख्य रूप से आत्म-सुधार और सामाजिक न्याय के लिए प्रयास करना है। सशस्त्र संघर्ष की अनुमति केवल उन्हीं परिस्थितियों में दी जाती है जब आत्मरक्षा या अत्याचार के खिलाफ खड़ा होना आवश्यक हो।

कट्टरपंथी समूह 9:111 जैसी आयतों को चुन-चुनकर निकालते हैं और उन्हें उनके ऐतिहासिक और पाठ्य संदर्भ से अलग करके प्रस्तुत करते हैं। यह गलत व्याख्या इन समूहों के अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए की जाती है। वे ऐसे अज्ञानता और कमजोर समझ वाले व्यक्तियों का शोषण करते हैं, उन्हें यह विश्वास दिलाते हैं कि उनकी विचारधारा ईश्वरीय आदेशों के अनुरूप है। हालांकि, इस तरह की व्याख्या न तो इस्लामी न्यायशास्त्र में स्वीकार्य है और न ही नैतिकता में।

कुरान का वास्तविक सन्देश: शांति और न्याय की ओर बुलावा

कुरान स्पष्ट रूप से किसी भी तरह की ज्यादती और निर्दोष जीवन लेने की मनाही करता है। कुरान 5:32 में कहा गया है, “जिसने किसी निर्दोष व्यक्ति की हत्या की, मानो उसने पूरी मानवता की हत्या की।” कुरान के व्यापक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि यह शांति, न्याय और सह-अस्तित्व पर जोर देता है। उदाहरण के लिए:

• “ऐ ईमान वालो, न्याय पर डटे रहो और अल्लाह के लिए गवाही दो, चाहे वह तुम्हारे या तुम्हारे माता-पिता और रिश्तेदारों के खिलाफ हो।” (कुरान 4:135)
• “और यदि वे शांति की ओर झुकें, तो तुम भी शांति की ओर झुको और अल्लाह पर भरोसा रखो।” (कुरान 8:61)
• “अल्लाह न्याय करने, भलाई करने और रिश्तेदारों को दान देने का आदेश देता है।” (कुरान 16:90)

ये सिद्धांत इस्लाम की शिक्षाओं की बुनियाद हैं, जो किसी भी प्रकार की हिंसा को नकारते हैं।

कट्टरपंथ के खतरों का समाधान

कुरान की आयतों का कट्टरपंथियों द्वारा दुरुपयोग केवल हिंसा को बढ़ावा देता है और इस्लाम के वास्तविक संदेश को विकृत करता है। 9:111 आयत सहित सभी आयतों को उनके ऐतिहासिक और पाठ्य संदर्भ में समझा जाना चाहिए। सही व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि यह आयत नैतिकता और कानून के दायरे में न्याय और बलिदान के सिद्धांतों को प्रतिबिंबित करती है, न कि अंधाधुंध हिंसा को।

कट्टरपंथी विचारधाराओं को रोकने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जाने चाहिए:
1. प्रामाणिक ज्ञान का प्रसार: कुरान की आयतों के ऐतिहासिक और पाठ्य संदर्भ के बारे में लोगों को शिक्षित करना। यह ज्ञान कट्टरपंथियों द्वारा गलत व्याख्या को चुनौती देने का एक प्रभावी उपकरण है।
2. इस्लामी विद्वानों से संवाद: प्रामाणिक इस्लामी विद्वानों के साथ सक्रिय रूप से जुड़ना, जो धार्मिक ग्रंथों की सटीक व्याख्या प्रदान कर सकें।
3. कुरान की नैतिक शिक्षाओं को उजागर करना: कुरान के नैतिक सिद्धांत, जो मानव गरिमा, करुणा और न्याय के सार्वभौमिक मूल्यों के साथ मेल खाते हैं, को प्रमुखता से प्रस्तुत करना।
4. शैक्षिक और सामाजिक ढांचे का निर्माण: ऐसा ढांचा विकसित करना जो कट्टरपंथियों द्वारा शोषण किए जाने वाले कमजोर और सतही समझ वाले व्यक्तियों को सशक्त बना सके।

कुरान के सन्देश का दुरुपयोग केवल मुसलमानों को ही नहीं, बल्कि समूचे मानव समाज को नुकसान पहुंचाता है। कुरान की शिक्षाएं शांति, सहिष्णुता और मानवता के प्रति करुणा पर आधारित हैं। इन्हें सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर ही कट्टरपंथी विचारधारा को चुनौती दी जा सकती है।