निर्मल कुमार
(लेखक सामाजिक,आर्थिक मुद्दों के जानकार हैं।यह लेख उनके निजी विचार हैं।)
आज इंटरनेट हमारी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन चुका है, जिससे हम न केवल सूचना प्राप्त करते हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। इसके जरिए लोग शिक्षा लेते हैं, संवाद करते हैं, और समाज का हिस्सा बनते हैं। हालांकि, सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने कई समस्याएं भी खड़ी की हैं। इनमें से एक गंभीर चुनौती है – इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से मुस्लिम युवाओं में कट्टरपंथ का प्रसार। कई अतिवादी संगठन जैसे इस्लामिक स्टेट (ISIS) और अल-कायदा ने इन प्लेटफार्मों का उपयोग कर युवा मुस्लिमों को अपने विचारों से आकर्षित किया है, जिससे वे हिंसक विचारधाराओं की ओर मुड़ जाते हैं। इन संगठनों ने धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग कर, इस्लाम के संदेशों को विकृत रूप में प्रस्तुत कर युवाओं को कट्टरपंथी बनने के लिए प्रेरित किया है।
कट्टरपंथ का सामना करने में मुस्लिम धर्मगुरुओं का दायित्व
इस चुनौतीपूर्ण स्थिति में मुस्लिम धर्मगुरुओं (उलेमा) और इस्लामी संगठनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। धर्मगुरुओं के पास वह धार्मिक ज्ञान और सामुदायिक प्रभाव होता है, जो युवाओं को सही राह दिखाने और कट्टरपंथी विचारधाराओं का मुकाबला करने के लिए आवश्यक है। उनके पास समुदाय के बीच एक ऐसा विश्वास है, जो युवाओं को सही संदेश देने में सहायक होता है। धर्मगुरुओं का सबसे प्रमुख कार्य यह है कि वे इस्लाम की उन अवधारणाओं की सही व्याख्या करें, जिन्हें आतंकवादी संगठन अपने उद्देश्य के लिए तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं। विशेषकर “जिहाद” और “शहादत” जैसे शब्दों का सही अर्थ सामने रखना जरूरी है। असल में, जिहाद का मतलब आत्म-सुधार और समाज की भलाई के लिए संघर्ष करना है, न कि हिंसा फैलाना।
धर्मगुरु और इस्लामी विद्वान, कुरान के शांति, सहिष्णुता और आपसी भाईचारे के संदेशों को लोगों तक पहुंचाकर कट्टरपंथ का प्रभाव कम कर सकते हैं। इस्लाम का असली संदेश शांति, समानता और मानवता के प्रति प्रेम का है, जिसे कट्टरपंथी संगठन अपनी सुविधा अनुसार तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। धर्मगुरु कुरान की उस आयत पर विशेष जोर दे सकते हैं, जिसमें कहा गया है कि एक निर्दोष की हत्या पूरी मानवता की हत्या के समान है (कुरान 5:32)। साथ ही, वे पैगंबर मुहम्मद साहब के जीवन से जुड़े किस्सों का उदाहरण देकर भी दिखा सकते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में कितनी बार सहिष्णुता, दया और मानवता का संदेश दिया।
सोशल मीडिया पर सकारात्मक संवाद की आवश्यकता
धर्मगुरुओं को यह समझना चाहिए कि आज के युवा ज्यादातर सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर ही सक्रिय रहते हैं। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि धर्मगुरु और इस्लामी संगठन उन ऑनलाइन स्थानों पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराएं, जहां अतिवादी संगठन युवाओं को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। यदि हम कट्टरपंथ का मुकाबला करना चाहते हैं, तो सोशल मीडिया पर युवाओं के बीच धर्मगुरुओं की एक सक्रिय उपस्थिति होनी चाहिए। इसके लिए धर्मगुरुओं को छोटे वीडियो, ब्लॉग, इन्फोग्राफिक्स और अन्य डिजिटल सामग्री बनानी चाहिए जो इस्लाम के वास्तविक संदेश को सरल और आकर्षक तरीके से युवाओं के सामने रखे।
दुनियाभर में कई सफल प्रयास हो चुके हैं, जहां डिजिटल प्लेटफार्म का उपयोग कर कट्टरपंथ को चुनौती दी गई है। उदाहरण के लिए, यूके में क्विलियम फाउंडेशन कट्टरपंथ के खिलाफ काम कर रहा है और सोशल मीडिया के जरिए युवाओं तक शांति और सहिष्णुता का संदेश पहुंचा रहा है। इसी प्रकार, सऊदी अरब का सकीना कैंपेन सोशल मीडिया पर कट्टरपंथी विचारों का विरोध कर रहा है, और संयुक्त अरब अमीरात में सवाब सेंटर आईएसआईएस के प्रचार का सामना कर रहा है। ऐसे प्रयासों को और भी बढ़ाने की जरूरत है, ताकि युवाओं को उनके भाषा और संस्कृति के अनुसार उचित और संतुलित जानकारी मिल सके।
कट्टरपंथ के सामाजिक कारण और धर्मगुरुओं की भूमिका
कट्टरपंथ केवल धार्मिक मुद्दा नहीं है, इसके कई सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारण भी होते हैं। बेरोजगारी, भेदभाव, गरीबी, शिक्षा की कमी और समाज में हाशिए पर होने का अहसास, ये सब कारण हैं जिनकी वजह से युवा कट्टरपंथ की ओर खिंच सकते हैं। धर्मगुरुओं और इस्लामी संगठनों को चाहिए कि वे इन मुद्दों को भी ध्यान में रखें और युवाओं को केवल धार्मिक ज्ञान ही नहीं, बल्कि समाज में सशक्त बनाने के अवसर भी प्रदान करें।
धर्मगुरुओं और स्थानीय मस्जिदों के साथ-साथ समुदायिक केंद्रों को भी चाहिए कि वे युवाओं के लिए रोजगार, शिक्षा और मानसिक सहयोग की सुविधाएं उपलब्ध कराएं। मस्जिदों को एक ऐसा स्थान बनाया जाना चाहिए जहां पर युवाओं को मेंटरशिप, करियर काउंसलिंग और मनोरंजन के अवसर मिल सकें। इससे न केवल उनका आत्म-सम्मान बढ़ेगा, बल्कि वे कट्टरपंथी विचारों से भी दूर रहेंगे।
इसके साथ ही, इस्लामी संगठनों और धर्मगुरुओं को सरकारी एजेंसियों, शैक्षणिक संस्थानों और नागरिक संगठनों के साथ मिलकर काम करना चाहिए। एक समग्र डी-रेडिकलाइजेशन रणनीति बनाई जानी चाहिए, जिसमें युवाओं के लिए रोजगार, मानसिक स्वास्थ्य और समाज में अपनापन महसूस कराने की योजनाएं शामिल हों। अंतर-धार्मिक संवाद का आयोजन भी कट्टरपंथ का प्रभाव कम करने में सहायक हो सकता है। इससे विभिन्न समुदायों के बीच समझ और सौहार्द्र बढ़ता है, जो अतिवादी संगठनों के नकारात्मक संदेशों का सामना करने में सहायक हो सकता है।
धर्मगुरुओं की भूमिका: भविष्य की ओर एक कदम
मुस्लिम युवाओं का सोशल मीडिया के जरिए कट्टरपंथ की ओर बढ़ना एक गंभीर चुनौती है। इसे केवल कानून और सुरक्षा एजेंसियों के बल पर नहीं रोका जा सकता। इसके लिए धार्मिक और सामुदायिक नेताओं को जिम्मेदारी के साथ आगे आना होगा। प्रामाणिक इस्लामी शिक्षाओं का प्रचार करके, सोशल मीडिया पर सक्रिय रहकर और युवाओं के सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को सुलझाने का प्रयास करके, मुस्लिम नेता और धर्मगुरु युवा मुस्लिमों को कट्टरपंथी विचारधाराओं से दूर रखने में मदद कर सकते हैं। यह लड़ाई केवल आतंकवाद को रोकने की नहीं है, बल्कि मुस्लिम समाज के सुरक्षित भविष्य की रक्षा करने की भी है। इससे युवा मुस्लिम समाज का सकारात्मक हिस्सा बन सकेंगे और एक बेहतर और समझदारी से भरी दुनिया में अपनी जगह बना सकेंगे।