जशपुर/दुलदुला, 6 मई –
“जब पेट भूखा हो, बच्चे रोते हों, और सरकार चुप — तब सवाल उठता है कि किसके लिए बने हैं ये योजनाएं?”
दुलदुला विकासखंड के मयूरचूंदी पंचायत की सुमित्रा बाई,आज गांव-गांव घूमकर भीख मांगने को मजबूर है। हाथ में अंत्योदय का राशन कार्ड है, पर पेट खाली। दो छोटे बच्चों के साथ यह विधवा महिला अब सरकारी दुकानों के आगे नहीं, बल्कि गांववालों के दरवाजे पर झोली फैला रही है। यह एक महिला की नहीं, पूरे सिस्टम की विफलता की कहानी है।
राशन कार्ड है, चावल नहीं — यह कैसा न्याय?
सुमित्रा को अप्रैल में केवल चना मिला, चावल देने से मना कर दिया गया। कई बार दुकान गई, मिन्नतें कीं, लेकिन जवाब मिला – “चावल नहीं है।” क्या यही है ‘जनकल्याणकारी राज्य’ का चेहरा?
सत्ता-तंत्र की संवेदनहीनता
एक ओर सरकारें करोड़ों के विज्ञापन देती हैं – “हर गरीब को मिलेगा राशन” – वहीं जमीनी हकीकत सुमित्रा बाई जैसे हजारों लोगों की चीख बनकर उठती है, जिसे कोई सुनने को तैयार नहीं।
जनप्रतिनिधि खामोश, अफसर नदारद
पंचायत से लेकर जनपद तक, कोई जवाबदेही नहीं। जिन प्रतिनिधियों को सुमित्रा ने चुनकर भेजा, वे आज सत्ता की गर्मी में गुम हैं।जब सरपँच ही दुकानदार है तो सुमित्रा भला उम्मीद किससे करेगी?
एक ही सवाल — कब मिलेगा न्याय?
पंचायत के लोगों ने कहा कि “हम मांग करते हैं कि दोषियों पर कड़ी कार्रवाई हो और सुमित्रा बाई जैसे हर जरूरतमंद को तत्काल राशन उपलब्ध कराया जाए।” बड़ी बात सुमित्रा को न तो सुशासन तिहार के बारे में जानकारी है न ही आवेदन कैसे बनता है,यह वो जानती है।
ऐसी सामान्य महिलाएं हों या पुरुष जिनके दर्द को जब विपक्ष भी नहीं समझता तो ऐसे मरे विपक्ष के कारण पंचायती गिद्ध तो मौज उड़ाएंगे ही।
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