इंटरनेट के युग में मुस्लिम युवाओं के कट्टरपंथीकरण को रोकने में मुस्लिम धर्मगुरुओं की भूमिका

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 निर्मल कुमार (लेखक सामाजिक,आर्थिक मुद्दों के जानकार हैं।यह लेख उनके निजी विचार हैं।) आज इंटरनेट हमारी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन चुका है, जिससे हम न केवल सूचना प्राप्त करते हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं। इसके जरिए लोग शिक्षा लेते हैं, संवाद करते हैं, और समाज का हिस्सा बनते हैं। हालांकि, सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने कई समस्याएं भी खड़ी की हैं। इनमें से एक गंभीर चुनौती है – इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से मुस्लिम युवाओं में कट्टरपंथ का प्रसार। कई अतिवादी संगठन जैसे इस्लामिक स्टेट (ISIS) और अल-कायदा ने इन प्लेटफार्मों का उपयोग कर युवा मुस्लिमों को अपने विचारों से आकर्षित किया है, जिससे वे हिंसक विचारधाराओं की ओर मुड़ जाते हैं। इन संगठनों ने धार्मिक भावनाओं का दुरुपयोग कर, इस्लाम के संदेशों को विकृत रूप में प्रस्तुत कर युवाओं को कट्टरपंथी बनने के लिए प्रेरित किया है। कट्टरपंथ का सामना करने में मुस्लिम धर्मगुरुओं का दायित्व इस चुनौतीपूर्ण स्थिति में मुस्लिम धर्मगुरुओं (उलेमा) और इस्लामी संगठनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। धर्मगुरुओं के पास वह धार्मिक ज्ञान और सामुदायिक प्रभाव होता है, जो युवाओं को सही राह दिखाने और कट्टरपंथी विचारधाराओं का मुकाबला करने के लिए आवश्यक है। उनके पास समुदाय के बीच एक ऐसा विश्वास है, जो युवाओं को सही संदेश देने में सहायक होता है। धर्मगुरुओं का सबसे प्रमुख कार्य यह है कि वे इस्लाम की उन अवधारणाओं की सही व्याख्या करें, जिन्हें आतंकवादी संगठन अपने उद्देश्य के लिए तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं। विशेषकर “जिहाद” और “शहादत” जैसे शब्दों का सही अर्थ सामने रखना जरूरी है। असल में, जिहाद का मतलब आत्म-सुधार और समाज की भलाई के लिए संघर्ष करना है, न कि हिंसा फैलाना। धर्मगुरु और इस्लामी विद्वान, कुरान के शांति, सहिष्णुता और आपसी भाईचारे के संदेशों को लोगों तक पहुंचाकर कट्टरपंथ का प्रभाव कम कर सकते हैं। इस्लाम का असली संदेश शांति, समानता और मानवता के प्रति प्रेम का है, जिसे कट्टरपंथी संगठन अपनी सुविधा अनुसार तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। धर्मगुरु कुरान की उस आयत पर विशेष जोर दे सकते हैं, जिसमें कहा गया है कि एक निर्दोष की हत्या पूरी मानवता की हत्या के समान है (कुरान 5:32)। साथ ही, वे पैगंबर मुहम्मद साहब के जीवन से जुड़े किस्सों का उदाहरण देकर भी दिखा सकते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में कितनी बार सहिष्णुता, दया और मानवता का संदेश दिया। सोशल मीडिया पर सकारात्मक संवाद की आवश्यकता धर्मगुरुओं को यह समझना चाहिए कि आज के युवा ज्यादातर सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर ही सक्रिय रहते हैं। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि धर्मगुरु और इस्लामी संगठन उन ऑनलाइन स्थानों पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराएं, जहां अतिवादी संगठन युवाओं को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। यदि हम कट्टरपंथ का मुकाबला करना चाहते हैं, तो सोशल मीडिया पर युवाओं के बीच धर्मगुरुओं की एक सक्रिय उपस्थिति होनी चाहिए। इसके लिए धर्मगुरुओं को छोटे वीडियो, ब्लॉग, इन्फोग्राफिक्स और अन्य डिजिटल सामग्री बनानी चाहिए जो इस्लाम के वास्तविक संदेश को सरल और आकर्षक तरीके से युवाओं के सामने रखे। दुनियाभर में कई सफल प्रयास हो चुके हैं, जहां डिजिटल प्लेटफार्म का उपयोग कर कट्टरपंथ को चुनौती दी गई है। उदाहरण के लिए, यूके में क्विलियम फाउंडेशन कट्टरपंथ के खिलाफ काम कर रहा है और सोशल मीडिया के जरिए युवाओं तक शांति और सहिष्णुता का संदेश पहुंचा रहा है। इसी प्रकार, सऊदी अरब का सकीना कैंपेन सोशल मीडिया पर कट्टरपंथी विचारों का विरोध कर रहा है, और संयुक्त अरब अमीरात में सवाब सेंटर आईएसआईएस के प्रचार का सामना कर रहा है। ऐसे प्रयासों को और भी बढ़ाने की जरूरत है, ताकि युवाओं को उनके भाषा और संस्कृति के अनुसार उचित और संतुलित जानकारी मिल सके। कट्टरपंथ के सामाजिक कारण और धर्मगुरुओं की भूमिका कट्टरपंथ केवल धार्मिक मुद्दा नहीं है, इसके कई सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारण भी होते हैं। बेरोजगारी, भेदभाव, गरीबी, शिक्षा की कमी और समाज में हाशिए पर होने का अहसास, ये सब कारण हैं जिनकी वजह से युवा कट्टरपंथ की ओर खिंच सकते हैं। धर्मगुरुओं और इस्लामी संगठनों को चाहिए कि वे इन मुद्दों को भी ध्यान में रखें और युवाओं को केवल धार्मिक ज्ञान ही नहीं, बल्कि समाज में सशक्त बनाने के अवसर भी प्रदान करें। धर्मगुरुओं और स्थानीय मस्जिदों के साथ-साथ समुदायिक केंद्रों को भी चाहिए कि वे युवाओं के लिए रोजगार, शिक्षा और मानसिक सहयोग की सुविधाएं उपलब्ध कराएं। मस्जिदों को एक ऐसा स्थान बनाया जाना चाहिए जहां पर युवाओं को मेंटरशिप, करियर काउंसलिंग और मनोरंजन के अवसर मिल सकें। इससे न केवल उनका आत्म-सम्मान बढ़ेगा, बल्कि वे कट्टरपंथी विचारों से भी दूर रहेंगे। इसके साथ ही, इस्लामी संगठनों और धर्मगुरुओं को सरकारी एजेंसियों, शैक्षणिक संस्थानों और नागरिक संगठनों के साथ मिलकर काम करना चाहिए। एक समग्र डी-रेडिकलाइजेशन रणनीति बनाई जानी चाहिए, जिसमें युवाओं के लिए रोजगार, मानसिक स्वास्थ्य और समाज में अपनापन महसूस कराने की योजनाएं शामिल हों। अंतर-धार्मिक संवाद का आयोजन भी कट्टरपंथ का प्रभाव कम करने में सहायक हो सकता है। इससे विभिन्न समुदायों के बीच समझ और सौहार्द्र बढ़ता है, जो अतिवादी संगठनों के नकारात्मक संदेशों का सामना करने में सहायक हो सकता है। धर्मगुरुओं की भूमिका: भविष्य की ओर एक कदम मुस्लिम युवाओं का सोशल मीडिया के जरिए कट्टरपंथ की ओर बढ़ना एक गंभीर चुनौती है। इसे केवल कानून और सुरक्षा एजेंसियों के बल पर नहीं रोका जा सकता। इसके लिए धार्मिक और सामुदायिक नेताओं को जिम्मेदारी के साथ आगे आना होगा। प्रामाणिक इस्लामी शिक्षाओं का प्रचार करके, सोशल मीडिया पर सक्रिय रहकर और युवाओं के सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को सुलझाने का प्रयास करके, मुस्लिम नेता और धर्मगुरु युवा मुस्लिमों को कट्टरपंथी विचारधाराओं से दूर रखने में मदद कर सकते हैं। यह लड़ाई केवल आतंकवाद को रोकने की नहीं है, बल्कि मुस्लिम समाज के सुरक्षित भविष्य की रक्षा करने की भी है। इससे युवा मुस्लिम समाज का सकारात्मक हिस्सा बन सकेंगे और एक बेहतर और समझदारी से भरी दुनिया में अपनी जगह बना सकेंगे।

*वक्फ संपत्तियों का अधूरा उपयोग और दुरुपयोग: सुधारों की आवश्यकता*

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(निर्मल कुमार) वक्फ, एक इस्लामी संस्था है जो परोपकारी संपत्तियों के दान के सिद्धांत पर आधारित है, जिसका उद्देश्य संपत्ति या संपत्ति को अल्लाह की सेवा और जनता के लाभ के लिए समर्पित करना है। एक बार संपत्ति को वक्फ घोषित कर दिया जाता है, तो इसे धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए सौंप दिया जाता है और इसे रद्द, बेचा या बदला नहीं जा सकता। इन संपत्तियों से प्राप्त आय का उपयोग कब्रिस्तानों, मस्जिदों, मदरसों, अनाथालयों, अस्पतालों और शैक्षिक संस्थानों जैसी आवश्यक जन सेवाओं के लिए किया जाता है, जो सभी समुदायों की सेवा करते हैं। हालांकि, भारत में वक्फ संपत्तियों के दुरुपयोग और अधूरी उपयोगिता को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जा रही है, जिसमें भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन और अतिक्रमण के आरोप लगातार लगते रहे हैं। उत्तर प्रदेश (यूपी), जहां वक्फ संपत्तियों की विशाल होल्डिंग है, इस संस्था के कुप्रबंधन का एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करता है। राज्य में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड 1.5 लाख से अधिक संपत्तियों का प्रबंधन करता है, जबकि शिया वक्फ बोर्ड के तहत 12,000 से अधिक संपत्तियां आती हैं, सितंबर 2022 तक। इन संपत्तियों के बावजूद, इनका प्रबंधन कई विवादों में उलझा रहा है। यूपी और झारखंड वक्फ बोर्डों के प्रभारी सैयद एजाज अब्बास नकवी के नेतृत्व वाली एक तथ्य-खोज समिति ने गंभीर अनियमितताओं का खुलासा किया। उदाहरण के लिए, यह आरोप लगाया गया कि मंत्री आज़म खान ने अपने पद का दुरुपयोग करके वक्फ फंड को एक निजी ट्रस्ट में स्थानांतरित कर दिया, जिसे उन्होंने स्थापित किया था। रिपोर्ट में किराया संग्रह रिकॉर्ड में विसंगतियों की ओर भी इशारा किया गया और इस बात पर प्रकाश डाला गया कि यूपी के सुन्नी और शिया वक्फ बोर्ड दोनों वक्फ संपत्तियों को अवैध रूप से बेचने और स्थानांतरित करने में शामिल थे। इसका परिणाम 2019 में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा मामले की जांच में हुआ, जिससे भ्रष्टाचार की व्यापकता पर प्रकाश डाला गया। यूपी और मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित दारगाह बाबा कपूर की वक्फ संपत्ति, जो 550 गांवों में फैली हुई है, इन समस्याओं का एक और उदाहरण है। इस संपत्ति से होने वाली आय वक्फ बोर्ड तक नहीं पहुंचती, जिससे जनता में असंतोष पैदा होता है। एक अन्य उदाहरण में, दफनाने के उद्देश्य से आरक्षित वक्फ भूमि को एक मॉल बनाने के लिए स्थानीय राजनेताओं को बेच दिया गया, जिससे मुस्लिम समुदाय में आक्रोश फैल गया। यूपी में जो स्थिति है वह अकेली नहीं है। पूरे भारत में, वक्फ संपत्तियों को डेवलपर्स, राजनेताओं, नौकरशाहों और तथाकथित “भू-माफिया” द्वारा निशाना बनाया गया है। वक्फ भूमि अचल होती है, फिर भी कई संपत्तियां कम दरों पर लीज़ पर दी गईं या बेची गईं, और आय भ्रष्ट अधिकारियों की जेबों में चली गई। इसके अलावा, कई राज्य बोर्डों पर अवैध किकबैक के बदले वक्फ भूमि को निजी खरीदारों को बेचने का आरोप है, जो रियल एस्टेट की बढ़ती मांग से प्रेरित है। जैसे-जैसे भूमि अधिक मूल्यवान होती जा रही है, वक्फ संपत्तियां, जो जन कल्याण के लिए होती हैं, भ्रष्टाचार के प्राथमिक लक्ष्य बन रही हैं। अगस्त 2024 में, भारतीय सरकार ने वक्फ बोर्डों को सुव्यवस्थित करने और संपत्तियों के अधिक प्रभावी प्रबंधन को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से दो विधेयक पेश किए, वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2024 और मुसलमान वक्फ (निरसन) विधेयक, 2024। प्रस्तावित प्रमुख संशोधनों में से एक वक्फ संपत्तियों का अनिवार्य पंजीकरण है, जो जिला कलेक्टर को यह निर्धारित करने का अधिकार देता है कि कोई संपत्ति वक्फ है या नहीं। हालांकि, यह प्रावधान जिला कलेक्टर के कार्यालय पर अतिरिक्त बोझ डाल सकता है, जिससे पंजीकरण प्रक्रिया धीमी हो सकती है। पारदर्शिता और जवाबदेही के नाम पर एक निजी इकाई के नियमन में अत्यधिक सरकारी हस्तक्षेप वक्फ बोर्डों की धार्मिक स्वायत्तता को कमजोर कर सकता है। एक अन्य विवादास्पद परिवर्तन यह है कि वक्फ बोर्ड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) के लिए मुस्लिम होना अनिवार्य नहीं है। आलोचकों का तर्क है कि इस तरह के संशोधन वक्फ बोर्डों की धार्मिक स्वायत्तता का उल्लंघन करते हैं, जैसा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 में निहित है। भारत में वक्फ संपत्तियों का मुद्दा तुरंत और निष्पक्ष रूप से समाप्त किया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार और अतिक्रमण को रोकने के लिए सरकारी हस्तक्षेप आवश्यक है, लेकिन इसे वक्फ बोर्डों की धार्मिक स्वायत्तता को बनाए रखने की आवश्यकता के साथ संतुलित किया जाना चाहिए। अधिक जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करके, इन संपत्तियों से उत्पन्न आय का उपयोग मुस्लिम समुदाय को उठाने के लिए किया जा सकता है, जैसे कि अधिक कब्रिस्तानों, स्कूलों और कॉलेजों का निर्माण। वक्फ संपत्तियों का दुरुपयोग और उनका अधूरा उपयोग न केवल इन संपत्तियों के परोपकारी उद्देश्यों के साथ विश्वासघात है, बल्कि सामाजिक विकास के लिए एक खोया हुआ अवसर भी है। वक्फ बोर्डों को प्रभावी ढंग से कार्य करने के लिए, उनके संचालन को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करना होगा, और सुधारों को ईमानदारी से लागू किया जाना चाहिए। तभी वक्फ संपत्तियां वास्तव में जनता के हित में काम कर सकेंगी, जैसा कि उनका उद्देश्य था। (लेखक सामाजिक,आर्थिक मामलों के जानकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।)

विचार : असाध्य को साधने के लिए राम को भी शक्ति साधना का अनुष्ठान करना पड़ा

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असाध्य को साधने के लिए राम को भी शक्ति साधना का अनुष्ठान करना पड़ा और आज हम शक्ति की महत्ता को नकारते जा रहे हैं। रावण अतुल बलशाली और अत्यन्त ज्ञानी पुरुष था… उसके पास साधारण व्यक्तियों की तुलना में दस व्यक्तियों के बराबर बुद्धि थी… परंतु असाधारण बुद्धि होने के उपरांत भी वह विवेकशून्य था! रावण त्रिकालदर्शी महाकाल महादेव का अनन्य भक्त था… जनश्रुति अनुसार रावण जब महादेव की पूजा के कैलाश जाता था तो अहंकारी स्वभाव वश स्वयं शीश नवाकर महादेव को नमन करने के बजाय महादेव को कैलाश सहित उठाकर अपने शीश पर रख लेता था… रावण के अनुसार दोनों बातें एक ही थी… कि चाहें महादेव के चरणों में वह अपना शीश नवाए या महादेव के चरण उठाकर अपने शीश पर धर लें! क्योंकि उसके पास ज्ञान तो बहुत था पर विवेक जिसे हम कॉमनसेंस कहते हैं, नहीं था। क्योंकि जब आप किसी के दरवाजे कुछ मांगने जाते हैं या उससे मात्र मिलने ही जाते हैं तो आपके स्वभाव में मृदुलता और सौम्यता होनी चाहिए… रावण सुरों और वाद्य यंत्रों का कुशल ज्ञाता था इसलिए रावण जब कैलाश के प्रांगण में प्रवेश करता था वो वह नानाप्रकार से महादेव की स्तुति करके महादेव को प्रसन्न करता था… उसकी सारी प्रार्थनाएं ध्वनि और स्वरों पर आधारित थी। आज भी उसकी गायी स्तुतियां पढ़ते, सुनते या गाते समय शरीर में विभिन्न प्रकार की ओज शक्ति और आनंद का भान होता है… लेकिन यह ऊर्जा नकारात्मकता से भरी हुई हैं। रावण की गाई हुई स्तुतियों में रावण का अहंकार और दम्भ स्पष्ट झलकता है। परंतु राम विनीत भाव से अत्यन्त सरल मना होकर करबद्ध निवेदन की भंगिमा में महादेव की स्तुति करते हैं। जिससे प्रसन्न होकर महादेव कहते हैं… “रावण जैसा भी है… परंतु मेरा अनन्य भक्त है.. मैं रावण के विपक्ष में खड़ा नहीं हो सकता इसलिए मैं आपको विजय का आशीर्वाद नहीं दे सकता” अब जिस पक्ष में स्वयं देवों के देव स्वयं महादेव खड़े हो उस पक्ष से जीत पाना कठिन नहीं वरन असम्भव है। तब राम महादेव के कहने पर शक्ति की साधना करते हैं! परंतु शक्ति की विशेषता है कि वह सदैव योग्य पात्र का ही चयन करती हैं। शक्ति महादेव की वामांगी हैं इसलिए राम से उच्चतर पात्र और कौन हो सकता है, जिसके पक्ष में वह खड़ी हों! कोई भी व्यक्ति मात्र एक लोटा जल चढ़ाकर भी महादेव को अपने पक्ष में कर सकता है परन्तु शक्ति बिना योग्यता का परीक्षण किये किसी के पक्ष में नहीं जाती हैं। नौ दिवस के अन्तिम दिवस के शक्ति अनुष्ठान में एक कमलपुष्प कम होने पर कमलनयन राम अपनी आंख निकालकर चढ़ाने का प्रयोजन करते है तभी शक्ति प्रकट होकर उन्हें विजय का आशीर्वाद देती हैं। जिस पक्ष में शक्ति है, स्त्री है वह पक्ष स्वयं ही बहुत बलशाली हो जाता है। शक्ति के समक्ष जब महादेव करबद्ध प्रणाम कर रहे हैं तो शक्ति की महिमा पर संदेह ही नहीं उठता है। लेकिन वर्तमान में पुरुष इतना दंभी है कि वह शक्ति को ही नकार रहा है… या शक्ति को ही प्रताड़ित कर रहा है! अब ऐसी परिस्थितियों में आप कैसे विजय और सफल होगें यह निर्णय आप स्वयं कीजिए! *विजयदशमी की शुभकामनाएं* 🚩 यह विचार मेरे प्रिय भाई अभिषेक बनारसी ने मेरे व्हाट्सएप में भेजा।उनका यह विचार आज के समय मे जब धर्म की मजबूती चारों ओर दिखाई दे रही है लेकिन धर्म जीवनचर्या में नहीं दिखने पर उपजा है। खबर जनपक्ष अपने पाठकों से अपील करता है कि आपके विचार सम्समयिकजनसरोकर से जुड़े हों तो हमें भी अवगत कराएं।हमारे पोर्टल के माध्यम से आपके विचार भी जनमानस तक पहुंचाने का काम करेंगे। 8103015433 पर व्हाट्सएप करें।

विश्लेषण : *सड़कों से गांवों तक पहुंचने की कोशिश, यह कोई बुरी बात तो नहीं*

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बरुण सखाजी (लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं) बीते कुछ वर्षों से विपरीत दलों की सरकारों में आपसी अदावत (कटुता) बढ़ी है। इस अदावत के लिए कौन जिम्मेदार हैं, सब जानते हैं। हर दल अपने आपको लोकतंत्र का पहरूआ बता रहा है लेकिन इस अहंकार को नहीं छोड़ पा रहा कि वह विपक्ष में भी बैठ सकता है। 2014 के बाद से ऐसी अदावतें बढ़ी हैं। इसका कारण साफ है, सदा सत्ता मे रहने का अहंकार। जनता की राय का अपमान। साठ साल तक राज करके ऐसा स्वभाव हो जाना स्वभाविक भी है, किंतु चुनावी लोकतंत्र में इसे जितने जल्दी हो समझ लेना चाहिए। आज हैं, कल नहीं हैं, कल रहेंगे परसों नहीं होंगे। जनता जिसे चाहेगी वही बैठेगा और वह वैसा ही करेगा जैसा करने के लिए उसे चुना गया है। छत्तीसगढ़ में इस बात को ठीक से समझ लिया गया है। जमीन पर महसूस किया जा रहा है। कहीं कोई चूक न हो पाए इसलिए जनता को सबसे ऊपर जानकर उससे किए वादों को पूरा किया जा रहा है। आलोचना की जा सकती है, किंतु धैर्यपूर्वक देखेंगे तो समझ आएगा आलोचना बेवजह है। चूंकि जो कहा वह करना और वह करके दिखाना ही सफल सियासत और राजनेता की पहचान है। बदले हुए दौर में समझ लेना होगा, लोगों को गुमराह करना अब संभव नहीं है। साल 2023 के विधानसभा चुनावों में छत्तीसगढ़ में भाजपा की विजय वास्तव में बदले जनमत का ही प्रमाण है। इसमें भी सरकार संचालन के लिए ऐसे व्यक्तित्व का चयन बड़ी चुनौती थी, जिसकी स्वीकार्यता, अनुभव, विनम्रता, मिलनसारता, सियासत की समझ, विकास के कार्यों के प्रति सकारात्मक रवैया और टीम को लेकर चलने का हुनर हो। इस मामले में मोदी की गारंटी और मोदी का चयन दोनों को मानना ही पड़ेगा। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का महकमा यूं तो देशभर में सड़कों की सुंदरता, मजबूती और सुलभता के लिए जाना जाता है। लेकिन इसमें भी छत्तीसगढ़ के लिए दिल खोल देना महत्वपूर्ण बात है। सड़कों का निर्माण एक सतत प्रक्रिया है। 2018 तक प्रदेश में सड़कों का निर्माण सामान्यतः अच्छी रफ्तार से चल रहा था, किंतु बाद के कुछ वर्ष जैसे काम रुक गया। न गलियों में निर्माण हो रहा था, न गांवों में। जो नेशनल हाईवे भी बन रहे थे तो उन्हें भी स्टेट लेवल के क्लीयरेंस गैर प्राथमिकता में मिलता था। यानि मिल गया तो मिल गया नहीं तो किसी को पड़ी नहीं थी। परंतु अब ऐसा नहीं है। *नए* दौर में सड़कों को लेकर सरकार आंतरिक रूप से स्पष्ट है। वह मानती है, भले ही कितनी ही रफ्तार से समाज में बदलाव हो रहे हों, लेकिन सड़क, बिजली, पानी मूलभूत जरूरतें बनी रहेंगी। जो भी सरकार इनसे खिलवाड़ करेगी, उसे भुगतना पड़ेगा। इस बात को जो राजनीतिक दल सत्ता में रहते ही समझ जाए वह समझदार, अन्यथा अहंकार तो कोई भी कुर्सियों पर विराजते ही पाल ही लेते हैं। प्रदेश की दुखती रग रहा है जशपुर, पत्थलगांव रोड, केशकाल का घंटो जाम को मजबूर टेढ़ामेढ़ा रास्ता, बस्तर को और दूर करता धमतरी-जगदलपुर का रास्ता। बस्तर के अन्य आंतरिक रास्ते, सरगुजा के भीतरी इलाकों के रोड, बिलासपुर संभाग में आने वाले जिलों की सड़कें। यह सब चीख-चीखकर कह रही हैं इनका निर्माण जरूरी है। वर्तमान सरकार ने सारी बातों को मजबूती से रखा। मुख्यमंत्री ने पूरी सच्चाई से गडकरी से सहयोग मांगा। विभागीय मंत्री ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। पैसा भी मिला, समय-सीमा का वादा भी मिला और प्रदेश की ओर से वचनबद्धता भी दी गई। यही होना चाहिए। केंद्र बड़प्पन दिखाता है और प्रदेश अपने गरिमा और आवश्यकता के अनुरूप काम करते हैं। वाद-विवाद की कोई जगह नहीं होती। छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ वर्षों से विवाद ने स्थान लिया था। असहमतियों का भ्रम खड़ा किया गया। संकुचित राजनीतिक सोच के चलते टकराव पैदा किए गए। अब यह सब खत्म हो गए हैं। नतीजे में प्रदेश को हजारों करोड़ की सड़कें मिल रही हैं। यह सड़कें एक ही दल की केंद्र और प्रदेश में सरकार होने के कारण भी मिल रही हैं। संभवतः इसे ही डबल इंजन की सरकार कहा गया था। सड़कों के जरिए गांवों तक पहुंचने की कोशिश, कोई बात बुरी तो नहीं है। क्या इसकी भी आलोचना करेंगे आप? sakhajee.blogpsot.com (यह लेखक के निजी विचार हैं।)

(समसामयिक लेख) विष्णु सरकार का सुशासन : कहीं फेल तो कहीं पास

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(समसामयिक लेख) कल छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य से जुड़ी सुशासन पर दो खबरों ने मुझे काफी प्रभावित किया एक – बीजापुर-सुकमा से आई वह खबर जिसमें 108 एम्बुलेंस के दोनों कर्मचारियों ने 18 किमी पहुंचविहीन गांव से मरीज को अपने कंधों में ढोकर एम्बुलेंस तक लाया।दो – जशपुर जिले में पक्की सड़क पर अपने घर से मरीज को चार कंधों में ढोकर अस्पताल तक पहुंचाया। यहां दोनों जगह सिस्टम खाट पर और कंधे के सहारे दिखा।मतलब एक जगह सरकार पहुंच नहीं पाई तो एम्बुलेंस के दो कर्मचारी खटिया पर मरीज को डाले और अपने कंधों पर उठाकर 18 किलोमीटर पैदल चले।दूसरी जगह सिस्टम खुद कंधे पर चलता दिखा।अब इसमें एक ओर 108 के कर्मचारियों के कारण विष्णु के सुशासन का झंडा बुलंद हुआ तो दूसरी ओर मुख्यमंत्री के गांव में पक्की सड़क पर भी 108 एम्बुलेंस का नहीं पहुंचना,सुशासन के गाल पर तमाचे जैसा लगा। ये दोनों घटना सोशल मीडिया में खूब चल रही हैं।बीजापुर के पत्रकार युकेश चंद्राकर ने 108 के कर्मचारियों के जज्बे को सलाम करते हुए लिखा – ‘अशक्त मरीज को खाट पे रखा, कंधे पर उठाया और 18 किलोमीटर पैदल चलकर एंबुलेंस तक पहुंचाया एंबुलेंस कर्मचारियों ने । माओवाद प्रभावित बीजापुर-सुकमा के सरहदी इलाके की तस्वीर देखिए और राय दीजिए कि माओवादी गतिविधियों के कारण नहीं बन सकी हैं कई इलाकों में सड़कें या कोई और कारण है ? मीडियम पांडू नाम के युवक को पेट और कमर में दर्द की सूचना मिली थी एंबुलेंस कर्मचारियों को । EMT रोहित ताड़पल्ली और पायलट दिलीप बोयना ने मरीज को कंधे पर उठाकर एंबुलेंस तक पहुंचाया और एंबुलेंस से हॉस्पिटल तक लाया । सलाम है दोनों भाइयों को 🙏❤️ Gyanendra Tiwari Vijay Sharma CMO Chhattisgarh’ वहीं सीएम के गृह जिले जशपुर ,ऊपर से उनकी ही विधानसभा कुनकुरी की फरसाबहार तहसील में कांग्रेस जिलाध्यक्ष मनोजसागर यादव ने खाट पर सिस्टम को चार कंधे पर जाते हुए दिखाया।जिसमें चार कंधों में एक कंधा गरीब परिवार की महिला को देते हुए देखकर सरकार के होने का एहसास कराना खुद सरकार को मुश्किल हो गया है।विपक्षी पार्टी के जिलाध्यक्ष मनोजसागर अपने फेसबुक पोस्ट पर लिखते हैं – जशपुर जिले मे स्वास्थ्य व्यवस्था कैसी है यह अब तक आपने सीएम कार्यालय बगिया तथा भाजपा आईटी सेल के जरिए जाना है आइए हम आपको जमीनी हकीकत दिखाते हैं, इस विडीओ के माध्यम से। ‘इस खाट मे पड़ी महिला का नाम मुन्नू बाई है जो कि ग्राम बनगांव निवासी गंभीर रूप से बीमार है, दो दिन से इनके परिजनो ने 108 मे कॉल किया हर बार जवाब मिला एम्बुलेंस मौजुद नही है, आने पर भेजा जाएगा, परिजनों ने महसुस किया ऐसे तो मरीज मर जाएगा, ऐसे में उन्होंने तत्कालिक फैसला लेते हुऎ सन 1910 वाला तरीका अपनाया मरीज को चारपाई पर डाला चारों कोनों में चार लोग उठाकर उक्त बीमार महिला को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र फरसा बाहर लेकर गए। एक और सीएम साहब जिनका स्वंय का विधान सभा क्षेत्र है , दूसरी ओर सुपर सीएम साहिबा तीसरी ओर बगिया कैंप कार्यालय जहाँ से लगभग 10 कि. मी. की दुरी का मामला,चौथी ओर कुनकुरी सेवा सदन के साथ विधानसभा से 2 निज सचिव उसके बाद ऐसी अव्यवस्था, कहाँ हैं आप सीएम साहब। जनता अब कहने लगी हैं सीएम साहब से ज्यादा बेहतर विधायक यू डी मिंजऔर भूपेश सरकार था जिनके राज में किसी को कोई समस्या नहीं थी उनके लोग हर जगह हर समस्या के लिए जनता के साथ खड़े मौजूद होते थे । Bhupesh Baghel Deepak Baij Indian National Congress – Chhattisgarh’ ये दो तस्वीरें और उनपर लिखे दो पोस्ट पढ़कर लगता है कि सरकार के स्वास्थ्य सिस्टम को 108 एम्बुलेंस चला रही है।जो कहीं पास है तो कहीं फेल। असल में 108 एम्बुलेंस या तो मरीजों के हिसाब से पर्याप्त नहीं है या फिर सिस्टम में बैठे लोग लापरवाही से मरीज को समय पर एम्बुलेंस नहीं दे पाते हैं।यह सरकार को देखना होगा। इससे ठीक एक दिन पहले जशपुर जिले के बगीचा में श्रद्धालुओं से भरी पिकप पलट गई जिसमें दर्जनभर से ज्यादा लोग घायल हो गए। 4 गम्भीर घायलों में 2 का रायपुर में सरकारी सिस्टम से बेहतर इलाज चल रहा है।इस दर्दनाक घटना में घायल फरसाबहार के फरदबहार गांव के कई लोग सीएम साय के रिश्तेदार थे और श्रद्धालुओं के काफिले में भाजपा के कार्यकर्ता भी बड़ी संख्या में थे।पुख्ता जानकारी है कि घटना के बाद 108 एम्बुलेंस ने आने में बहुत देर कर दी,तब तक एक मीडियाकर्मी और सोनगेरसा की पूर्व सरपंच श्रीमती गणेश्वरी बाई पैंकरा के सहयोग से घायलों को निजी गाड़ियों में बगीचा अस्पताल भेजा गया।बाद में शाम 6 बजे बतौली से आये एम्बुलेंस में कम घायलों को ले जाया गया।अब यह पढ़कर चौंकिए कि मीडिया की सुर्खियां बनते ही घटनास्थल पर रात दस बजे तक दो एम्बुलेंस खड़ी थी जबकि करीब 4:30 बजे यह हादसा हुआ। वहीं सीएमएचओ डॉ. जी.एस. जात्रा पता नहीं कौन सी यात्रा में थे जिन्होंने मीडियाकर्मियों का फोन तक नहीं उठाया। अब जशपुर जिले में 108 एम्बुलेंस के ताजा आंकड़ों की बात करें तो यहां 24 एम्बुलेंस हैं।जिसमें से 3 एम्बुलेंस गैरेज में मरम्मत कराने खड़ी है।21 एम्बुलेंस एक दिन में यानी 19 सितंबर को 3283 किलोमीटर चली जिसका औसत निकालें तो हर एम्बुलेंस ने 156 किलोमीटर की दूरी तय की है। मेरे 108 से जुड़े सूत्र बताते हैं कि सीएम डिस्ट्रिक्ट होने के नाते ,ऊपर से सीएम सीट कुनकुरी के वोटर होने के नाते 8 से 10 एम्बुलेंस मरीजों को सीधे रायपुर ले जाने में व्यस्त रहते हैं।इसमें से ज्यादातर सीधे सीएम कार्यालय बगिया के निर्देश पर बिना रेफरल मरीज होते हैं,जो बस से भी सफर कर सकते हैं।इसका मतलब यदि एम्बुलेंस में अब तक जाने वाले मरीजों का मर्ज जानने की ईमानदार कोशिश की जाय तो आंखें फ़टी-की-फ़टी रह जाएंगी। बहरहाल,सिस्टम के सुसंचालन हेतु स्वास्थ्य मंत्री हैं लेकिन वे अपने उन कामों को लेकर ज्यादा सुर्खियों में हैं जो उन्हें नहीं करना चाहिए।रही बात मुखिया की तो सवाल मुखिया से करना होता है और जवाब भी मुखिया को ही देना होता है। ऐसे में एक सवाल जनता की ओर से ये है कि क्या मुख्यमंत्री अपनी विधानसभा के उन चार मतदाता को सम्मानित करेंगे जिन्होंने सरकारी अस्पताल में इलाज़ कराने के लिए मरीज … Read more

*वक्फ बोर्ड सुधार: एक मुस्लिम महिला की आवाज से सशक्त होगा समुदाय*

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  हालांकि सरकार के प्रस्तावित संशोधन सही दिशा में एक कदम हैं, फिर भी वक्फ बोर्डों की प्रभावशीलता बढ़ाने के लिए और कदम उठाए जा सकते हैं। निर्मल कुमार (लेखक अंतर्राष्ट्रीय समाजिक,आर्थिक मामलों के जानकार हैं।यह उनके निजी विचार हैं।) वक्फ बोर्ड, जो 1995 के वक्फ अधिनियम के तहत स्थापित किए गए थे, का उद्देश्य इस्लामी कानून के अनुसार धार्मिक, परोपकारी, और पवित्र उद्देश्यों के लिए संपत्तियों का प्रबंधन और सुरक्षा करना था। हालांकि, हाल के वर्षों में इन बोर्डों की शक्तियों के दुरुपयोग, पारदर्शिता की कमी, और प्रबंधन में असफलता को लेकर आलोचना की गई है। इसके चलते सुधार की मांग उठी है, और सरकार ने इन मुद्दों को सुलझाने के लिए वक्फ अधिनियम में महत्वपूर्ण संशोधन प्रस्तावित किए हैं। ये संशोधन सरकार की उस प्रतिबद्धता को भी दर्शाते हैं, जो लंबे समय से उठे हुए मुद्दों को हल करने और सचर समिति की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए वक्फ बोर्डों का दायरा बढ़ाने की दिशा में है। वर्तमान वक्फ बोर्डों की एक मुख्य समस्या उनकी “असीमित शक्तियाँ” हैं, जो उन्हें बिना उचित निगरानी या सत्यापन के किसी भी भूमि को वक्फ संपत्ति घोषित करने की अनुमति देती हैं। इस कारण से वक्फ बोर्डों द्वारा संपत्ति हड़पने और वक्फ अधिनियम के प्रावधानों का दुरुपयोग करने की कई शिकायतें मिली हैं। कुछ मामलों में बोर्डों ने याचिकाकर्ताओं को न्यायपालिका से न्याय प्राप्त करने से भी रोका है, जिससे कानून का उल्लंघन हुआ है। संपत्तियों को वक्फ संपत्ति घोषित करने की प्रक्रिया में उचित सत्यापन की कमी और मनमाने ढंग से संपत्तियों को वक्फ घोषित करना आम जनता और विभिन्न मुस्लिम समुदायों में असंतोष को बढ़ा रहा है। इन चिंताओं के जवाब में, सरकार ने वक्फ अधिनियम में संशोधन के कई प्रस्ताव दिए हैं, जिनका उद्देश्य जवाबदेही और पारदर्शिता को बढ़ाना है। इन संशोधनों में केंद्रीय वक्फ परिषद और राज्य वक्फ बोर्डों की संरचना को पुनर्गठित करने का प्रावधान है ताकि बेहतर प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके, जिसमें महिलाओं का अनिवार्य समावेश भी शामिल है। एक महत्वपूर्ण संशोधन में यह प्रावधान है कि किसी भूमि को वक्फ संपत्ति घोषित करने से पहले उसका अनिवार्य सत्यापन किया जाएगा। यह मनमाने और अनुचित घोषणाओं को रोकने के लिए किया गया है, जो विवाद और दुरुपयोग का कारण बने हैं। प्रस्तावित बदलावों में विवादित संपत्तियों की न्यायिक जांच का प्रावधान भी है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उन्हें उचित और पारदर्शी तरीके से वक्फ संपत्ति घोषित किया जाए। इसके अलावा, विधेयक में उन धाराओं को निरस्त करने का प्रावधान है जो बोर्डों को अत्यधिक शक्तियाँ देती हैं, जिससे उनके द्वारा इन शक्तियों के दुरुपयोग को रोका जा सके। ये संशोधन वक्फ बोर्डों के कामकाज को अधिक पारदर्शी और उत्तरदायी बनाने के व्यापक प्रयास का हिस्सा हैं। सरकार ने इन सुधारों के लिए मुस्लिम बुद्धिजीवियों और संगठनों से सुझाव भी प्राप्त किए हैं। हालांकि सरकार के प्रस्तावित संशोधन सही दिशा में एक कदम हैं, फिर भी वक्फ बोर्डों की प्रभावशीलता बढ़ाने के लिए और कदम उठाए जा सकते हैं। सभी वक्फ संपत्तियों के लिए एक डिजिटल रिकॉर्ड-कीपिंग सिस्टम लागू कर पारदर्शिता बढ़ाई जा सकती है। इन रिकॉर्डों तक जनता की पहुँच होने से ज्यादा निगरानी और जवाबदेही सुनिश्चित होगी। एक स्वतंत्र निगरानी समिति की स्थापना, जिसमें कानूनी विशेषज्ञ, सामुदायिक नेता, और सरकारी प्रतिनिधि शामिल हों,जो वक्फ बोर्डों की गतिविधियों की निगरानी कर सकती है और कानून का पालन सुनिश्चित कर सकती है। यह वक्फ बोर्ड के सदस्यों और कर्मचारियों के लिए नियमित प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यक्रम करते हुए उनके कानूनी, वित्तीय, और प्रशासनिक पहलुओं की समझ को सुधार सकता है, जिससे वक्फ संपत्तियों का बेहतर प्रबंधन हो सके। स्थानीय समुदाय की भागीदारी को बढ़ावा देने से यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि वक्फ संपत्तियों का प्रबंधन समुदाय की जरूरतों और आकांक्षाओं के अनुरूप हो। सरकार द्वारा केंद्रीय वक्फ परिषद और राज्य वक्फ बोर्डों में महिलाओं के अनिवार्य समावेश के प्रस्ताव के अलावा, इन भूमिकाओं में महिलाओं को सशक्त और समर्थन करने के लिए विशेष कार्यक्रम और पहल बनाना महत्वपूर्ण होगा। इसमें नेतृत्व प्रशिक्षण, मेंटरशिप कार्यक्रम और यह सुनिश्चित करना कि महिलाओं को वक्फ प्रबंधन के सभी पहलुओं में भाग लेने के बराबर अवसर मिलें, शामिल हो सकते हैं। प्रस्तावित संशोधनों ने मुस्लिम महिलाओं की आवाज को सशक्त किया है, वक्फ बोर्डों में मुस्लिम महिलाओं के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करके उनकी सशक्तिकरण की दिशा में कदम उठाया है। केंद्रीय वक्फ परिषद और राज्य वक्फ बोर्डों में महिलाओं का समावेश लैंगिक समानता और समावेशी निर्णय-निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इन सुधारों के साथ-साथ महिलाओं की भागीदारी और सामुदायिक सहभागिता को बढ़ाने के लिए अतिरिक्त उपाय भी महत्वपूर्ण हैं, ताकि वक्फ प्रणाली में विश्वास बहाल हो सके और यह निष्पक्ष और न्यायपूर्ण ढंग से संचालित हो, जिससे हमारे समाज के सभी सदस्यों को लाभ हो।

छात्रों की लड़ाई में पिसता प्रिंसिपल,आत्मानन्द में हुई मारपीट के पीछे की सच और साजिश की क्या है कहानी?

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जशपुर/कुनकुरी – बीते 28 अगस्त को स्वामी आत्मानन्द विशिष्ट अंग्रेजी मीडियम हाईस्कूल कुनकुरी में छात्रों के बीच हुई मारपीट के मामले में पड़ी धुंध हटती जा रही है।पुलिसिया और प्रशासनिक कार्रवाई के बीच खबर जनपक्ष को ऐसी जानकारियां मिलीं हैं, जिन्हें पाठकों के सामने रखना जरूरी समझा। क्यों हुई मारपीट? यह बताने से पहले हम छात्रों के बदले हुए नाम से सच्ची कहानी बताते हैं – इसमें चांद,सूरज और पृथ्वी तीन किरदार हैं।दरअसल,उस दिन और दिनों की तरह पढाई चल रही थी।रेसिस टाईम में करीब 10:10 बजे सुबह चांद और सूरज के बीच छात्र चुनाव को लेकर बहस होने लगी।जिसमें बात बढ़ते-बढ़ते हाथापाई पर उतर आई।पृथ्वी ने बताया कि सबसे पहले सूरज ने चांद के चेहरे पर मुक्का मारा,फिर चांद ने मुक्का मारा जो सूरज को नहीं लगा,दुबारा मुक्का मारा जो सूरज के कान के पीछे पड़ा,जिससे सूरज के सिर से खून बहने लगा।चांद ने फाइटर से मारा हालांकि चांद का कहना है पृथ्वी पूरा सच नहीं बता रहा है,मैंने अंगूठी पहनी थी,जिससे सूरज को चोट लगी है।खून निकलता देख सूरज का दोस्त पृथ्वी अपने दो-तीन दोस्तों के साथ बीच-बचाव किया।तब तक स्कूल के टीचर दीपक यादव, वाइस प्रिंसिपल चौहान स्टेज के पीछे हो-हल्ला सुनकर पहुंचे।उन्होंने घायल सूरज को अस्पताल पहुंचाया।जहां सिर में टांके लगने के बाद सूरज वापस स्कूल आ गया। घटना के समय प्रिंसिपल इकबाल खान कहाँ थे? इस घटना के दौरान स्कूल के प्रिंसिपल इकबाल खान आवश्यक बैठक में जशपुर कलेक्ट्रेट में थे।जैसे ही उन्हें पता चला वे बैठक से निकल गए।तब तक इधर मामला थाने तक जा पहुंचा।सूरज अपने साथियों के साथ थाने में और चांद सीधे घर।प्रिंसिपल सीधे थाने पहुंचे और घायल सूरज से मिले।मामला सुलझाने और समझौता करने-कराने की बात पर समय निकलता गया।छात्रों की लड़ाई में दो समुदाय का तड़का लगते ही एफआईआर हो गया।माहौल में गर्मी बढ़ता देख प्रिंसिपल इकबाल घर चले गए क्योंकि चांद तो उनका ही बेटा था।दूसरे दिन इस बात पर चिल्लम-चिल्ली होती रही कि चांद ने फाइटर से मारकर सिर फोड़ा है या चांद की अंगूठी से लगकर सूरज को गहरी चोट आई है। कलेक्टर के निर्देश पर जांच फिर प्रिंसिपल पर गिरी गाज मामला सुर्खियों में आने के बाद जिला शिक्षाधिकारी पी.के.भटनागर ने स्कूल में एक जांच टीम भेजी।जांच टीम ने सम्बंधित पक्षों उनके पालकों, शिक्षकों और छात्रों के बयान लिए और प्रतिवेदन बनाकर डीईओ श्री भटनागर को सौंप दिया गया।डीईओ ने इसे कलेक्टर डॉ. रवि मित्तल के समक्ष प्रशासनिक कार्यवाही के लिए रखा।जिसका अवलोकन करने के बाद इस घटना में प्रिंसिपल की घोर लापरवाही पाई गई।जिसमें प्रमुख कारण यह माना गया कि अपने स्कूल में सक्षम प्राधिकारी के बिना अनुमति बाहरी स्कूल के 2 छात्रों को प्रवेश दिया गया।तीन दिन का समय देकर कारण बताओ नोटिस प्रिंसिपल को दिया गया। कैसा रहा है प्रिंसिपल इकबाल खान का शिक्षकीय व प्रशासकीय सफर? एक नजर —– 1988 से अपने शिक्षकीय जीवन की शुरुआत करनेवाले इकबाल अहमद खान नारायणपुर थाना अंतर्गत दाराखरिका गांव से आते हैं।इनके बारे में जब हमने जानकारी जुटानी शुरू की तो 36 वर्षों के शिक्षकीय,गैर शिक्षकीय व प्रशासनिक कार्यों में बेदाग रहे।ये राज्यपाल, मुख्यमंत्री व जिला कलेक्टरों द्वारा 2021 से अब तक अपनी कुशल अध्यापन व प्रशासनिक दक्षता से सम्मानित होते आये हैं।इन्होंने मानवता की मिसाल पेश करते हुए 3 नवम्बर 2013 को खेत से लौटते हुए एक बेसुध वृद्ध महिला को देखा,जिसके पैर में बड़ा घाव जिसमें कीड़े रेंग रहे थे।इकबाल उसे अपने घर ले गए और सेवा करने लगे।घाव से कीड़े खुद साफ करते,खाना खिलाते।इसका घर में विरोध भी हुआ लेकिन उन्होंने उसकी सेवा करते हुए उसे ठीक कर दिया।वृद्ध महिला की याददाश्त चली गई थी तो वह इकबाल को ही अपना बेटा मानकर घर में ही रही। सरबकोम्बो हाईस्कूल में प्रिंसिपल के पद पर रहते हुए अपने भाई सुल्तान से 51,000/- रुपये दान में लेकर छात्रों के लिए सायकिल स्टैंड बनवाया।वहीं हाईस्कूल के लिए रास्ते के लिए जनप्रतिनिधियों से बार-बार मांग कर रास्ता तैयार कराया।वर्ष 2022 में राज्य शासन से इन्हें प्रतिनियुक्ति में स्वामी आत्मानन्द उत्कृष्ट अंग्रेजी विद्यालय का प्रिंसिपल बनाया।आत्मानन्द स्कूल के शिक्षकों ने इनके कार्यकाल को अनुशासन व अध्ययन-अध्यापन के लिए स्वर्णिम काल बताया है।वहीं 28 तारीख की घटना के बाद प्रिंसिपल खान के स्थानान्तरण की आशंका से कई विद्यार्थी और उनके अभिभावकों में निराशा है और अब बीच सत्र में ही टीसी लेकर दूसरे स्कूलों में जाने का मन बना रहे हैं। बहरहाल, दो छात्रों की लड़ाई में गैरहाजिर रहे प्रिंसिपल इकबाल खान पिसते नजर आ रहे हैं।जानकारों की मानें तो जब संकल्प कोचिंग के छात्र दूसरे स्कूल के छात्र हो सकते हैं तो प्रिंसिपल के बेटे-भतीजे अनुमति लेकर दूसरे स्कूल में पढ़ रहे हैं तो इसमें इतना बवाल क्यों? अब देखना होगा कि जो आरोप उनके ऊपर लगे हैं वो कितना सही है।

*अशांति में राह दिखाता धर्म: बांग्लादेश के राजनीतिक आंदोलन में इसकी भूमिका*

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समसामयिक : निर्मल कुमार किसी भी बड़े पैमाने पर हिंसा का सबसे बड़ा शिकार हमेशा समाज की विविधता और एकता होती है। बांग्लादेश, जो एक बहुधार्मिक देश है, जहां हिंदू एक महत्वपूर्ण अल्पसंख्यक समुदाय हैं, अक्सर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में चर्चा का विषय बनता है। कुछ लोगों का मानना है कि ये विरोध इस्लाम के नाम पर हुए और इस्लामिक कट्टरपंथियों ने हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमला करने के लिए लोगों को उकसाया। रिपोर्टों में कहा गया कि हिंदू धार्मिक स्थलों, घरों और महिलाओं पर हमले हुए। चूंकि इस्लाम बांग्लादेश का बहुसंख्यक धर्म है, इसे आंदोलन की एक बड़ी प्रेरक शक्ति बताया गया। हालांकि, यह जरूरी है कि हम इन विरोध प्रदर्शनों में प्रदर्शनकारियों के आचरण और इस्लाम की शिक्षा को ध्यान में रखते हुए अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा की बात समझें। इस्लाम की शिक्षाएं साफ तौर पर कहती हैं कि अल्पसंख्यकों के जीवन और संपत्ति की रक्षा होनी चाहिए, चाहे युद्ध का समय हो या शांति का। इसलिए, इन हिंसक विरोधों के दौरान, सरकार और प्रदर्शनकारियों दोनों को उचित आचरण करना चाहिए। विरोध आंदोलनों को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे समाज में साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखें, नहीं तो उन्हें अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा का जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। बांग्लादेश में, विरोध आंदोलन ने जल्द ही अपने लक्ष्यों को पूरा किया और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा बहुत ज्यादा नहीं बढ़ी। मीडिया ने कुछ हिंसा की घटनाओं की जानकारी दी, लेकिन साथ ही यह भी बताया कि कई स्थानीय मुसलमान, उलेमा, मदरसा छात्र और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हिंदू घरों और मंदिरों की रक्षा के लिए पहल की। धार्मिक संगठनों ने भी लोगों से अपील की कि यह आंदोलन किसी समुदाय के खिलाफ नहीं, बल्कि भ्रष्ट राजनीतिक नेताओं के खिलाफ है, इसलिए सबको मिलकर साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखना चाहिए। ऐसे समय में, बांग्लादेशी मुसलमानों का धार्मिक कर्तव्य है कि वे हिंदुओं के जीवन और संपत्ति की रक्षा के लिए आगे आएं। सरकार, प्रशासन और आंदोलन के नेताओं की जिम्मेदारी है कि वे समाज में शांति और सद्भाव बनाए रखें, क्योंकि इस्लाम अल्पसंख्यकों की सुरक्षा का हुक्म देता है। इसे नियम और कानून का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। धार्मिक नेताओं को मस्जिदों से इस बात की घोषणा करनी चाहिए कि स्थानीय स्तर पर अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए प्रयास किए जाएं। बांग्लादेश में छात्रों द्वारा शुरू किए गए इस आंदोलन ने देश में बदलाव की मांग और गहरे असंतोष को उजागर किया है। राजनीतिक गड़बड़ी, भ्रष्टाचार और आर्थिक समस्याओं ने इस आंदोलन को हवा दी है, लेकिन यह आंदोलन यह भी दिखाता है कि एक बहुधार्मिक समाज में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा और साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखना कितना जरूरी है। जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ता है, यह जरूरी है कि सरकार और प्रदर्शनकारी न्याय और अहिंसा के रास्ते पर चलें, ताकि राजनीतिक सुधार की कोशिशें समाज में और विभाजन या हिंसा न पैदा करें। इस्लाम की शिक्षाएं और सभी नागरिकों की नैतिक जिम्मेदारियां हमें यह याद दिलाती हैं कि हमें अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए और इस आंदोलन का असली मकसद भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ना और सभी के लिए एक बेहतर समाज बनाना है। बांग्लादेश को एक ऐसा भविष्य चाहिए जहां सभी समुदाय एक साथ मिलकर आगे बढ़ सकें। (लेखक आर्थिक व सामाजिक मामलों के जानकार हैं।समसायिक विषयों पर उनके लेख विभिन्न संचार माध्यमों में प्रकाशित होते हैं।यह लेखक के निजी विचार हैं।)

**इतिहास में मुस्लिम महिलाओं की भूमिका: फ़ातिमा अल-फ़िहरी और खदीजा बिन्त खुवायलिद की विरासत**

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लेखक – निर्मल कुमार मुस्लिम महिलाओं को केवल घरेलू कार्यों तक सीमित मानने का विचार न केवल गलत है, बल्कि यह उन महत्वपूर्ण योगदानों को भी नजरअंदाज करता है जो उन्होंने इतिहास में दिए हैं। ऐसी ही एक अद्वितीय हस्ती हैं फ़ातिमा अल-फ़िहरी, जिनकी विरासत इस मिथक को खारिज करती है और यह दिखाती है कि मुस्लिम महिलाओं ने शिक्षा और समाजिक प्रगति में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। फ़ातिमा अल-फ़िहरी, एक दूरदर्शी मुस्लिम महिला, ने 859 ईस्वी में फ़ेज़, मोरक्को में अल-क़रावीइन विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। इस विश्वविद्यालय को यूनेस्को और गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स द्वारा दुनिया का सबसे पुराना लगातार संचालित डिग्री प्रदान करने वाला विश्वविद्यालय माना गया है। 9वीं सदी में एक महिला द्वारा इस विश्वविद्यालय की स्थापना इस्लामी दुनिया में महिलाओं की प्रमुख और अग्रणी भूमिका को उजागर करती है। फ़ातिमा अल-फ़िहरी और उनकी बहन मरियम ने पहले अल-अंडालुस मस्जिद का निर्माण किया, जो बाद में अल-क़रावीइन विश्वविद्यालय में बदल गया। इस निर्माण में 18 साल लगे, जिसमें फ़ातिमा ने मस्जिद की समाप्ति तक लगातार उपवास रखा। उद्घाटन के समय, वह पहली बार उसमें प्रवेश कर, प्रार्थना की और इस विशाल कार्य को पूरा करने के लिए भगवान का धन्यवाद किया। इन परियोजनाओं के लिए वित्तीय संसाधन उनके माता-पिता से विरासत में मिले थे, जो उनके युवावस्था में ही स्वर्गवासी हो गए थे। एक संपन्न परिवार से आने वाली फ़ातिमा और मरियम ने अपनी विरासत का उपयोग अपने समुदाय की भलाई और शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए किया। यह निर्णय उनकी सामाजिक और शैक्षिक विकास के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है, जो इस मिथक को खारिज करता है कि उस समय की मुस्लिम महिलाएं केवल घरेलू भूमिकाओं तक सीमित थीं। अल-क़रावीइन विश्वविद्यालय एक शिक्षण केंद्र बन गया, जो दुनिया भर से विद्वानों को आकर्षित करता था। यहीं पर पहली शैक्षणिक डिग्री प्रदान की गई, जो शैक्षिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था। खदीजा बिन्त खुवायलिद इस्लामी इतिहास में एक सफल व्यवसायी महिला और पैगंबर मुहम्मद की पहली पत्नी के रूप में प्रमुख स्थान रखती हैं। उन्होंने अपने पिता के व्यवसाय को विरासत में लेकर उसका विस्तार किया, जिससे वे मक्का की सबसे धनी और सम्मानित व्यापारियों में से एक बन गईं। खदीजा ने कई लोगों को रोजगार दिया, जिनमें मुहम्मद भी शामिल थे, जिनकी ईमानदारी और प्रबंधन कौशल ने उन्हें प्रभावित किया और उनके विवाह का कारण बना। एक सफल उद्यमी, समर्पित पत्नी और मां के रूप में उनकी विरासत मुस्लिम महिलाओं को अपने करियर का पीछा करने और अपने विश्वास को बनाए रखते हुए समाज में योगदान देने के लिए प्रेरित करती है। फ़ातिमा अल-फ़िहरी और खदीजा बिन्त खुवायलिद की कहानियां सिर्फ उन कई उदाहरणों में से हैं, जिनमें मुस्लिम महिलाओं ने घरेलू कार्यों के बाहर भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस्लामी इतिहास में महिलाएं विद्वान, कवि, डॉक्टर और नेता रही हैं। उन्होंने संस्थानों की स्थापना की और विज्ञान, साहित्य और राजनीति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। फ़ातिमा अल-फ़िहरी और खदीजा बिन्त खुवायलिद जैसी महिलाओं के योगदान से स्पष्ट है कि मुस्लिम महिलाओं की भूमिका कभी भी घरेलू कार्यों तक सीमित नहीं रही है। वे इस्लामी दुनिया और उससे परे की बौद्धिक और सांस्कृतिक धरोहर को आकार देने में महत्वपूर्ण रही हैं। यह विरासत आज मुस्लिम महिलाओं को प्रेरित और सशक्त करती है, रूढ़ियों को चुनौती देती है और उनकी संभावनाओं और उपलब्धियों की व्यापक समझ को प्रोत्साहित करती है। उनके योगदान इस बात के स्पष्ट उदाहरण हैं कि इस्लामी दुनिया में महिलाओं ने पारंपरिक भूमिकाओं को पार किया है, ज्ञान और संस्कृति की उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन ऐतिहासिक हस्तियों को उजागर करके, हम मुस्लिम महिलाओं के आसपास की कथाओं को चुनौती और पुनर्परिभाषित कर सकते हैं, समाज में उनके अमूल्य योगदान को मान्यता दे सकते हैं और उन्हें लाखों वर्तमान समय की मुस्लिम महिलाओं के लिए प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं, ताकि वे पितृसत्ता की बेड़ियों से बाहर निकल सकें। (यह लेख निर्मल कुमार के निजी विचार हैं।वे आर्थिक व सामाजिक मामलों के जानकार हैं.)