जशपुर में 15 अक्टूबर को होगा फिल्म अर्पण का पोस्टर विमोचन, डॉ हरविंदर मांकड़ और आदेश शर्मा रहेंगे विशेष अतिथि

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जशपुर में 15 अक्टूबर को होगा फिल्म अर्पण का पोस्टर विमोचन, डॉ हरविंदर मांकड़ और आदेश शर्मा रहेंगे विशेष अतिथि जशपुर,12 अक्टूबर 2025/ जशपुर की धरती एक बार फिर बड़ी सांस्कृतिक और प्रेरणादायक घटना की साक्षी बनने जा रही है। क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ ग्रेस कुजूर के संघर्षपूर्ण जीवन पर आधारित फिल्म अर्पण का भव्य पोस्टर विमोचन समारोह 15 अक्टूबर को जशपुर में आयोजित होगा। पॉपकॉर्न फ्लिक्स इंडिया के प्रोडक्शन हेड संतोष चौधरी ने बताया कि इस अवसर पर एपीजे अब्दुल कलाम पर पुस्तक लिखने वाले प्रसिद्ध लेखक और लोटपोट पत्रिका के मोटू पतलू के क्रिएटर, सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट डॉ हरविंदर मांकड़ तथा बालाजी फिल्म्स इंडिया के संस्थापक आदेश शर्मा मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहेंगे। खास बात है कि पॉपकॉर्न फ्लिक्स इंडिया की फिल्म अर्पण में नायिका की भूमिका स्वयं डॉ ग्रेस कुजूर ने निभाई है। कार्यक्रम में पूर्व सैनिक भी विशेष रूप से आमंत्रित हैं, क्योंकि डॉ ग्रेस के पिता स्वर्गीय स्तानिसलास कुजूर भारतीय सेना के वीर सैनिक रहे हैं, जिन्होंने चार लड़ाइयां, 1962, 1965, 1971 तथा गोवा मुक्ति संग्राम में अपनी वीरता का प्रदर्शन किया था। डॉ हरविंदर मांकड़ ने कहा कि “जशपुर की खूबसूरत और अनछुई वादियाँ मुझे दोबारा खींच लाई हैं। मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय जी की स्वच्छ पर्यावरण के प्रति प्रतिबद्धता अनुकरणीय है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक पेड़ माँ के नाम अभियान की सफलता देखकर यह फिल्म उसी भावना को समर्पित है।” वहीं, आदेश शर्मा ने भी डॉ ग्रेस के कार्यों से प्रभावित होकर समारोह में शामिल होने की सहमति दी है। वे पिछले 35 वर्षों से मीडिया और फिल्म निर्माण के क्षेत्र में सक्रिय हैं और तथास्तु इंडिया, वायदूत न्यूज नेटवर्क, बालाजी फिल्म्स के संस्थापक होने के साथ ही दूरदर्शन स्ट्रिंगर फेडरेशन ऑफ इंडिया के संयुक्त सचिव के रूप में कार्यरत हैं। यह समारोह न केवल जशपुर की कला और सौंदर्य को राष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलाने वाला साबित होगा, बल्कि डॉ ग्रेस कुजूर के प्रेरक जीवन की कहानी को भी जन-जन तक पहुँचाने का माध्यम बनेगा।

*Brown Sugar* : जशपुर में ‘ऑपरेशन आघात’ की बड़ी कार्रवाई: ब्राउन शुगर के साथ तकीम खान गिरफ्तार, 30 हजार रुपये की मादक पदार्थ जब्त

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जशपुर, 3 अक्टूबर 2025 जशपुर पुलिस द्वारा नशे के सौदागरों के खिलाफ चलाए जा रहे विशेष अभियान ‘ऑपरेशन आघात’ के तहत लोदाम थाना क्षेत्र में एक बड़ी कार्रवाई की गई है। पुलिस ने ग्राम साईं टांगर टोली से एक आरोपी को गिरफ्तार कर उसके कब्जे से ब्राउन शुगर की पुड़ियां जब्त की हैं।   पुलिस के अनुसार, 2 अक्टूबर को मुखबिर से सूचना मिली थी कि मोहम्मद तकीम खान (28 वर्ष), निवासी ग्राम साईं टांगर टोली, अपने पास ब्राउन शुगर रखकर बेचने के लिए ग्राहक तलाश रहा है। सूचना के आधार पर वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक शशि मोहन सिंह के निर्देशन में लोदाम पुलिस की टीम तत्काल कार्रवाई के लिए रवाना हुई।   टीम को देखकर आरोपी भागने की कोशिश करने लगा, लेकिन पुलिस ने पीछा कर घेराबंदी करते हुए उसे हिरासत में ले लिया। तलाशी के दौरान आरोपी के पैंट की जेब से पीले रंग की प्लास्टिक की पन्नी में लिपटी 19 कागज की पुड़ियां बरामद की गईं, जिनमें कुल 1 ग्राम 95 मिलीग्राम ब्राउन शुगर रखी हुई थी। जब्त मादक पदार्थ की बाजार कीमत लगभग 30 हजार रुपये बताई जा रही है।   लोदाम थाना में आरोपी के विरुद्ध एनडीपीएस एक्ट की धारा 21(a) के तहत अपराध दर्ज किया गया है। पुलिस आरोपी से यह भी पता लगाने में जुटी है कि वह ब्राउन शुगर कहां से लाता था और इस नेटवर्क में अन्य कौन लोग शामिल हैं। आरोपी को गिरफ्तार कर न्यायिक रिमांड पर जेल भेज दिया गया है।   इस कार्रवाई में थाना प्रभारी लोदाम निरीक्षक हर्षवर्धन चौरासे, उप निरीक्षक सुनील सिंह, सहायक उप निरीक्षक सहबीर भगत, आरक्षक मोरिस किस्पोट्टा, धनसाय राम और राजेश गोप की महत्वपूर्ण भूमिका रही।   वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक शशि मोहन सिंह ने बताया कि नशे के कारोबार के खिलाफ ऑपरेशन आघात के तहत पुलिस की कार्रवाई लगातार जारी रहेगी। जिले में मादक पदार्थों की अवैध तस्करी व बिक्री में लिप्त तत्वों पर सख्त निगरानी और सटीक कार्रवाई की जा रही है।

भारत के राष्ट्रीय अध्यापक विनोबा भावे की जयंती पर विशेष लेख,पढ़ें विनायक से विनोबा तक का सफर

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आचार्य विनोबा भावे / जयंती पर विशेष आलेख जन्म : 11 सितंबर 1895 मृत्यु : 15 नवंबर 1982   आज भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और गांधीवादी नेता, संत विनोबा भावे को उनकी जयंती पर कोटि-कोटि नमन। इन्हें महात्मा गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना जाता है, और भारत का राष्ट्रीय अध्यापक भी कहा जाता है, जिस कारण लोग संत विनोबा भावे को आचार्य कहकर भी संबोधित करते हैं।   आचार्य विनोबा भावे का जन्म 11 सितंबर, 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा ज़िले के गागोड गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका मूल नाम ‘विनायक नरहरि भावे’ था। उनके पिता का नाम नरहरि शंभू राव व माता का नाम रुक्मिणी देवी था। उनकी माता एक विदुषी महिला थी। आचार्य विनोबा भावे का ज़्यादातर समय धार्मिक कार्य व आध्यात्म में बीतता था। बचपन में वह अपनी मां से संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर और भगवत् गीता की कहानियां सुनते थे। इसका प्रभाव, उनके जीवन पर काफी गहरा पड़ा और इस वजह से उनका रुझान, आध्यात्म की तरफ बढ़ गया।   आगे चलकर विनोबा भावे ने रामायण, कुरान, बाइबल, गीता जैसे अनेक धार्मिक ग्रंथों का, गहन अध्ययन किया। वह एक कुशल राजनीतिज्ञ, और अर्थशास्त्री भी थे। उनका संपूर्ण जीवन साधू, सन्यासियों व तपस्वी की तरह बीता। इसी कारण, उनको संत कहकर संबोधित किया जाने लगा।   वह इंटर की परीक्षा देने के लिए 25 मार्च, 1916 को मुंबई जाने वाली रेलगाड़ी में सवार हुए, परंतु उस समय उनका मन स्थिर नहीं था। उन्हें लग रहा था कि वह जीवन में जो करना चाहते हैं, वह डिग्री द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। उनके जीवन का लक्ष्य, कुछ और ही था।   अभी उनकी गाड़ी सूरत पहुंची ही थी कि उनके मन में हलचल होने लगी। गृहस्थ जीवन या सन्यास, उनका मन दोनों में से किसी एक को नहीं चुन पा रहा था। तब थोड़ा विचार करने के बाद, उन्होंने संन्यासी बनने का निर्णय लिया, और हिमालय की ओर जाने वाली गाड़ी में सवार हो गए।   1916 में मात्र 21 वर्ष की आयु में, उन्होंने घर छोड़ दिया और साधु बनने के लिए, काशी नगरी पहुंच गए। वहां पहुंचकर, उन्होंने महान पंडितों के सानिध्य में, शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। उस समय, स्वतंत्रता आंदोलन भी अपनी चरम सीमा पर था।   महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटकर भारत आ गए थे। तब विनोबा जी ने अहमदाबाद के कोचरब आश्रम में, गांधी जी से पहली मुलाकात की। इस मुलाकात के बाद उनका जीवन बदल गया और उन्होंने अपना पूरा जीवन गांधीजी को समर्पित कर दिया।   1921 से 1942 तक, वह अनेकों बार जेल गए। उन्होंने 1922 में नागपुर में सत्याग्रह किया, जिसके बाद उनको गिरफ्तार कर लिया गया। 1930 में विनोबा जी ने, गांधीजी के नेतृत्व में नमक सत्याग्रह को अंजाम दिया। 11 अक्टूबर, 1940 को प्रथम सत्याग्रही के रूप में गांधी जी ने विनोबा भावे को चुना।   समय के साथ गांधीजी और विनोबा जी के संबंध काफी मज़बूत होते गए। वह गांधी जी के आश्रम में रहने लगे, और वहां की गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। आश्रम में ही उनको विनोबा नाम मिला।   विनोबा भावे ने गरीबी को खत्म करने के लिए, काम करना शुरू किया। 1950 में उन्होंने, सर्वोदय आंदोलन आरंभ किया। इसके तहत, उन्होंने ‘भूदान आंदोलन’ की शुरुआत की। 1951 में, जब वह आंध्रप्रदेश का दौरा कर रहे थे, तब उनकी मुलाकात, कुछ हरिजनों से हुई, जिन्होंने विनोबा जी से 80 एकड़ भूमि उपलब्ध कराने की विनती की।   विनोबा जी ने ज़मींदारों से आगे आकर अपनी ज़मीन दान करने का निवेदन किया, जिसका काफी ज़्यादा असर देखने को मिला और कई ज़मींदारों ने अपनी ज़मीनें दान में दीं। वहीं इस आंदोलन को पूरे देश में प्रोत्साहन मिला। 17 सितम्बर 1992 को हज़ारीबाग़ में इनके नाम पर “विनोबा भावे विश्वविद्यालय” इनके भूदान आंदोलन से प्राप्त जमीन पर स्थापित किया गया। विनोबा भावे जी को भूदान आंदोलन में सबसे ज्यादा जमीन हज़ारीबाग़ में मिली थी।   1959 में उन्होंने, महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए, ब्रह्म विद्या मंदिर की स्थापना की। स्वराज शास्त्र, गीता प्रवचन और तीसरी शक्ति उनकी लिखी किताबों में से प्रमुख है।   नवंबर 1982 में विनोबा भावे गंभीर रूप से बीमार हो गए और उन्होंने अपने जीवन को त्यागने का फैसला किया। उन्होंने जैन धर्म के संलेखना-संथारा के रूप में भोजन और दवा को त्याग दिया और इच्छा पूर्वक मृत्यु को अपनाने का निर्णय लिया। 15 नवंबर, 1982 को विनोबा भावे ने दुनिया को अलविदा कह दिया।

जशपुर में गणेश विसर्जन हादसे पर बवाल, मुआवजे की मांग को लेकर सड़क पर उतरी कांग्रेस

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Iजशपुर,03 सितंबर 2025 – बगीचा थाना क्षेत्र के जुरूडांड गांव में गणेश विसर्जन के दौरान हुए दर्दनाक हादसे ने पूरे प्रदेश को झकझोर कर रख दिया है। तेज रफ्तार बोलेरो की चपेट में आने से तीन श्रद्धालुओं की मौके पर ही मौत हो गई, जबकि दो लोग गंभीर रूप से घायल हैं और जिंदगी-मौत से जूझ रहे हैं।   घटना की गंभीरता को देखते हुए मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने त्वरित राहत की घोषणा करते हुए मृतकों के परिजनों को 5-5 लाख रुपये तथा घायलों को 50-50 हजार रुपये की आर्थिक मदद देने की बात कही है। हालांकि कांग्रेस पार्टी ने इस घोषणा को नाकाफी बताते हुए कड़ा विरोध दर्ज कराया है।   सोमवार को जुरूडांड में कांग्रेस कार्यकर्ताओं और स्थानीय ग्रामीणों ने पूर्व अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष भानुप्रताप सिंह के नेतृत्व में सड़क पर बैठकर जोरदार प्रदर्शन किया। कांग्रेस की मांग है कि मृतकों के परिवार को 50-50 लाख रुपये और घायलों को 10-10 लाख रुपये का मुआवजा दिया जाए।   फायरब्रांड नेता विनयशील ने सरकार पर हमला बोलते हुए कहा कि “दो-तीन साल पहले पत्थलगांव में दुर्गा विसर्जन हादसे में भाजपा ने सड़क पर उतरकर मृतकों के परिजनों के लिए 50 लाख रुपये की मांग की थी और तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने वह मुआवजा दिया भी था। अब भाजपा सरकार क्यों पीछे हट रही है?”   प्रदर्शन के चलते मौके पर तनाव की स्थिति बनी हुई है। भारी संख्या में पुलिस बल तैनात किया गया है ताकि हालात काबू से बाहर न हों। वहीं प्रशासनिक अधिकारी प्रदर्शनकारियों से बातचीत कर शव का अंतिम संस्कार कराने की अपील कर रहे हैं।  

कुनकुरी खेल मैदान में ऐसे मनाया गया स्वतंत्रता दिवस,मुख्यमंत्री का संदेश पढ़ा गया, प्रभात फेरी और सांस्कृतिक कार्यक्रम ने मोहा मन

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  कुनकुरी,16 अगस्त 2025 – स्वतंत्रता दिवस का पर्व इस वर्ष कुनकुरी में ऐतिहासिक उत्साह और उल्लास के साथ मनाया गया। नगर के खेल मैदान में आयोजित मुख्य समारोह में मुख्यमंत्री श्री विष्णुदेव साय की धर्मपत्नी एवं समारोह की मुख्य अतिथि श्रीमती कौशल्या साय ने ध्वजारोहण कर तिरंगे को सलामी दी। इस अवसर पर उनकी बड़ी बहन एवं जनपद पंचायत अध्यक्षा श्रीमती सुशीला साय विशेष रूप से उपस्थित रहीं। ध्वजारोहण के बाद श्रीमती कौशल्या साय ने मंच से मुख्यमंत्री का जनता के नाम संदेश पढ़ा। इससे पूर्व नगर के सभी स्कूलों के छात्र-छात्राओं ने प्रभात फेरी निकालकर शहर का भ्रमण किया। प्रभात फेरी का समापन जय स्तंभ चौक पर हुआ, जहां नगर पंचायत अध्यक्ष श्री विनयशील ने परंपरानुसार जय स्तंभ पर माल्यार्पण कर शहीद स्वतंत्रता सेनानियों को श्रद्धांजलि दी। जय स्तंभ उन वीर बलिदानियों की स्मृति का प्रतीक है, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर देश को आजादी दिलाई।   प्रभात फेरी के बाद खेल मैदान में मुख्य समारोह आयोजित हुआ, जिसमें मुख्य अतिथि श्रीमती कौशल्या साय, जनपद अध्यक्ष श्रीमती सुशीला साय, नगर पंचायत अध्यक्ष श्री विनयशील सहित बड़ी संख्या में गणमान्य नागरिक, अधिकारी, जनप्रतिनिधि एवं ग्रामीण उपस्थित रहे। कार्यक्रम में बच्चों ने देशभक्ति से ओतप्रोत गीत, नृत्य और रंगारंग सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दीं, जिसने सभी का मन मोह लिया। कार्यक्रम का संचालन अरविंद मिश्रा ने किया। स्वतंत्रता दिवस समारोह में पूरा वातावरण देशभक्ति के रंग से सराबोर रहा।

विशेष लेख : देवबंद और स्वतंत्रता संग्राम: भारतीय देशभक्ति का एक विस्मृत अध्याय

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लेखक : निर्मल कुमार भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समृद्ध ताने-बाने में, औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध कई स्वर एक साथ उठे, कुछ हथियारों के साथ, कुछ विचारों के साथ, और कई अटूट नैतिक विश्वास के साथ। इनमें, उत्तर प्रदेश के एक प्रसिद्ध इस्लामी मदरसे, दारुल उलूम देवबंद की भूमिका एक शक्तिशाली, फिर भी अक्सर उपेक्षित अध्याय है। ऐसे समय में जब भारत के धार्मिक संस्थानों से अलग-थलग रहने की उम्मीद की जाती थी, देवबंद न केवल एक आध्यात्मिक केंद्र के रूप में उभरा, बल्कि उपनिवेश-विरोधी प्रतिरोध के एक राजनीतिक केंद्र के रूप में भी उभरा। इसके विद्वानों और अनुयायियों का योगदान, जो गहरे इस्लामी मूल्यों पर आधारित है, फिर भी एक बहुलवादी, स्वतंत्र भारत के विचार के लिए प्रतिबद्ध है, भारतीय मुसलमानों के देशभक्ति के जोश का प्रमाण है। देवबंद की विरासत पर पुनर्विचार केवल ऐतिहासिक न्याय के बारे में नहीं है; यह राष्ट्रीय एकता की विस्मृत भावना को पुनः प्राप्त करने के बारे में है।   1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के कुछ ही वर्षों बाद, 1866 में स्थापित, दारुल उलूम देवबंद, औपनिवेशिक दमन के प्रति एक प्रतिक्रिया मात्र नहीं था, बल्कि यह एक वैचारिक अवज्ञा का कार्य था। जहाँ कई लोग अंग्रेजों को एक अदम्य शक्ति मानते थे, वहीं देवबंद के संस्थापकों का मानना था कि धार्मिक पहचान की रक्षा को राष्ट्र की स्वतंत्रता से अलग नहीं किया जा सकता। परिणामस्वरूप, यह संस्था धार्मिक शिक्षा और राजनीतिक चेतना का एक अनूठा संगम बन गई।   देवबंद से उभरे सबसे प्रमुख व्यक्तियों में मौलाना महमूद हसन भी थे, जिन्हें प्यार से शेखुल हिंद के नाम से जाना जाता था। उनका जीवन राष्ट्रीय स्वतंत्रता के विचार से अभिन्न रूप से जुड़ा था। उन्होंने रेशमी रूमाल तहरीक (रेशमी पत्र आंदोलन) का नेतृत्व किया, जो भारत में ब्रिटिश-विरोधी ताकतों और क्रांतिकारी समूहों के साथ सहयोग करने का एक भूमिगत प्रयास था। अंग्रेजों द्वारा उनकी गिरफ्तारी और उसके बाद माल्टा में निर्वासन ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। उन्होंने आंदोलन को खामोश नहीं किया, बल्कि भारत के मुस्लिम समुदाय, खासकर युवा मौलवियों और छात्रों के बीच, और अधिक प्रतिरोध को भड़काया। देवबंद का प्रभाव गुप्त गतिविधियों से कहीं आगे तक फैला हुआ था। इसने जमीयत उलेमा-ए-हिंद को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो स्वतंत्रता-पूर्व भारत के सबसे महत्वपूर्ण मुस्लिम राजनीतिक संगठनों में से एक था। मुस्लिम लीग, जो विभाजन की वकालत करती थी, के विपरीत, जमीयत ने खुद को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जोड़ लिया और धार्मिक आधार पर देश के विभाजन के खिलाफ दृढ़ता से खड़ी रही। वास्तव में, जमीयत की स्थिति इस्लामी शिक्षाओं में निहित थी, जो एकता (वहदत) और न्याय (अदल) पर जोर देती थी, जो उस समय की अलगाववादी राजनीति के लिए एक नैतिक प्रति-कथा प्रस्तुत करती थी।   कई देवबंदी विद्वानों ने महात्मा गांधी और अन्य राष्ट्रवादी नेताओं के साथ मिलकर अहिंसक प्रतिरोध और सविनय अवज्ञा में भाग लिया। देवबंद के एक और कद्दावर व्यक्ति मौलाना हुसैन अहमद मदनी न केवल ब्रिटिश शासन के मुखर विरोधी थे, बल्कि समग्र राष्ट्रवाद (मुत्तहिदा कौमियात) के भी प्रबल समर्थक थे। उनका तर्क था कि सभी भारतीय: हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई मिलकर एक राष्ट्र हैं और उन्हें औपनिवेशिक उत्पीड़कों के खिलाफ सामूहिक रूप से उठ खड़ा होना चाहिए। इस वैचारिक प्रतिबद्धता की एक कीमत चुकानी पड़ी। देवबंदी विद्वानों को अंग्रेजों द्वारा अक्सर गिरफ्तार किया जाता था, प्रताड़ित किया जाता था और उन पर निगरानी रखी जाती थी। उनके संस्थानों को परेशान किया जाता था और उनके आंदोलनों को दबा दिया जाता था। फिर भी, उनका संकल्प कभी नहीं डगमगाया। उनकी कक्षाएँ शिक्षा और राजनीतिक जागृति के स्थान दोनों बन गईं। उनके उपदेशों में न केवल ईश्वर की, बल्कि गांधी, नेहरू और आज़ाद की भी चर्चा होती थी। उनका विश्वास दुनिया से पीछे हटने का नहीं, बल्कि उसे बदलने की प्रेरणा था।   भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में, दारुल उलूम देवबंद और उसके विद्वानों का योगदान सम्मान के योग्य है। उन्होंने उपनिवेशवाद को केवल विरोध के माध्यम से ही नहीं, बल्कि एक सतत बौद्धिक और आध्यात्मिक प्रतिरोध के माध्यम से चुनौती दी, जिसने मुस्लिम और भारतीय होने के अर्थ को नए सिरे से परिभाषित किया। देवबंद की यह कहानी हमारी युवा पीढ़ियों के लिए एक महत्वपूर्ण अनुस्मारक है कि भारतीय मुसलमान हमेशा से स्वतंत्रता और न्याय के संघर्ष में सबसे आगे रहे हैं। जब हम अपनी स्वतंत्रता के नायकों का सम्मान करते हैं, तो हमें उस धर्म-मंच को नहीं भूलना चाहिए जिसने सत्ता के सामने सच बोला, उस मदरसे को नहीं भूलना चाहिए जिसने शहीदों को जन्म दिया, और उस आस्था को नहीं भूलना चाहिए जो स्वतंत्रता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चली।

हॉलीक्रॉस हायर सेकंडरी स्कूल, घोलेंग में भव्य परेड और ध्वजारोहण के साथ मना 79वां स्वतंत्रता दिवस

स्कूल बैंड की धुनों संग मुख्य अतिथि का स्वागत, परेड निरीक्षण कर दी शुभकामनाएं जशपुर, 15 अगस्त 2025/ आजादी के 79वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हॉलीक्रॉस हायर सेकंडरी स्कूल, घोलेंग में राष्ट्रभक्ति और उत्साह से भरा भव्य समारोह आयोजित किया गया। कार्यक्रम की मुख्य अतिथि समाजसेविका श्रीमती अन्ना मिंज का विद्यालय बैंड दल ने मधुर धुनों के साथ परेड ग्राउंड से मंच तक स्वागत किया। मुख्य अतिथि ने परेड का निरीक्षण कर छात्र-छात्राओं के अनुशासन और जोश की सराहना की। तत्पश्चात उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का विधिवत एवं ससम्मान ध्वजारोहण किया। अपने सारगर्भित उद्बोधन में श्रीमती मिंज ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बलिदान को नमन करते हुए देश-प्रदेश के नागरिकों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं दीं। कार्यक्रम में विद्यार्थियों द्वारा प्रस्तुत सांस्कृतिक कार्यक्रम, देशभक्ति गीत और कविताएं सभी को भावविभोर कर गईं। समारोह में विद्यालय परिवार, अभिभावक एवं बड़ी संख्या में स्थानीय नागरिक उपस्थित रहे।

बड़ी खबर: बच्चे चप्पल पहनकर स्कूल आए तो प्रिंसिपल ने कहा – भागो यहां से,अभिभावकों में रोष,लोयोला हाईस्कूल का मामला

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रिपोर्ट – संतोष चौधरी जशपुर/कुनकुरी, 2 अगस्त – एक तरफ सरकार हर बच्चे को शिक्षा दिलाने की कोशिश में करोड़ों खर्च कर रही है, वहीं दूसरी तरफ मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की विधानसभा से ही ऐसी तस्वीर सामने आई है जो न केवल अमानवीय है बल्कि “शिक्षा का अधिकार कानून” (RTE Act, 2009) की खुलेआम अवहेलना है। दरअसल, जशपुर जिले के कुनकुरी स्थित प्रतिष्ठित लोयोला हायर सेकेंडरी स्कूल, जहां से खुद मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने पढ़ाई की है, वहां शनिवार को कुछ छात्रों को सिर्फ इसलिए स्कूल से बाहर निकाल दिया गया क्योंकि वे बारिश में भीगने के कारण जूते नहीं पहन सके और चप्पल पहनकर आ गए थे। बताया गया कि शुक्रवार को स्कूल से लौटते समय बारिश के चलते कई बच्चों के जूते भीग गए। शनिवार को जब वे सूखे नहीं तो मजबूरी में बच्चों ने चप्पल पहनकर स्कूल आना उचित समझा, पर प्रिंसिपल फादर सुशील टोप्पो ने इसे “अनुशासनहीनता” मानते हुए बच्चों को स्कूल परिसर से बाहर निकाल दिया। छात्र हर्ष राम (कक्षा 9वीं) का कहना है – “हमने पहले भी देखा है कि पुराने प्रिंसिपल हमारी परिस्थितियों को समझते थे, लेकिन नए प्रिंसिपल बहुत सख्त हैं। आज हम लोग को बिना पढ़ाई के घर भेज दिए।बहुत खराब लग रहा है।” वहीं अभिभावक विष्णु राम और श्रवण यादव ने इसे बच्चों के शिक्षा के अधिकार का हनन बताया और जिला प्रशासन से मामले में कठोर कार्रवाई की मांग की है। क्या कहता है कानून? “शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009” (Right to Education Act) के तहत कोई भी स्कूल 6 से 14 वर्ष की आयु के किसी भी बच्चे को इस तरह शिक्षा से वंचित नहीं कर सकता। यूनिफॉर्म संबंधी नियमों के पालन में लचीलापन आवश्यक है, विशेषकर जब मामला गरीब परिवारों या प्राकृतिक परिस्थितियों से जुड़ा हो। प्रिंसिपल ने रखा अपना पक्ष इस घटना के बारे में जब हमने लोयोला हाईस्कूल हिंदी मीडियम के प्रिंसिपल फादर सुशील तिग्गा से बात की तो उन्होंने यह स्वीकार किया कि बिना जूता पहने स्कूल आने वाले छात्रों को बिना आवेदन के क्लास में बैठने नहीं दिया जाता।सुशील ने बताया कि हमने बच्चों को जुलाई तक रियायत दी थी।आज तीन छात्र मेरे पास आए थे,उन्होंने बारिश में जूता भींगने की बात बताई थी तो मैने उन्हें आवेदन देने को कहा था लेकिन उन्होंने आवेदन नहीं दिया और स्कूल से बाहर चले गए। प्रशासन से अपील इस मामले की जानकारी मिलने पर कई अभिभावकों ने कहा – “यह मामला न सिर्फ संवेदनशील है, बल्कि कानूनन भी गलत है। ज़रूरत है कि जिला शिक्षा अधिकारी, बाल संरक्षण आयोग और प्रशासन इस घटना की उच्च स्तरीय जांच कराए और बच्चों को पुनः शिक्षा से जोड़ा जाए। साथ ही स्कूल प्रशासन को निर्देशित किया जाए कि बच्चों की समस्याओं को मानवीय दृष्टिकोण से समझें।”

लेख: दाऊदी बोहरा और भारतीय बहुलवाद का वादा

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निर्मल कुमार भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता के बड़े दायरे में, दाऊदी बोहरा समुदाय नागरिक कर्तव्य, व्यावसायिक उद्यम और अन्य धार्मिक समूहों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का एक शांत लेकिन शक्तिशाली उदाहरण है। बोहरा, इस्माइली शिया मुसलमानों का एक उप-संप्रदाय है, जिसकी वैश्विक आबादी लगभग दस लाख है, जिसमें गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में महत्वपूर्ण संख्या में लोग रहते हैं। वे भारत की विकास कहानी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं- सुर्खियों में आने वाले विवादों के माध्यम से नहीं, बल्कि लगातार, समुदाय-आधारित कार्यों के माध्यम से। भारत में उनकी यात्रा से पता चलता है कि अन्य संस्कृतियों के प्रति खुले रहते हुए भी गहराई से धार्मिक और आधुनिक, गहराई से पारंपरिक और प्रगतिशील और गर्व से भारतीय होना संभव है।   बोहराओं की धार्मिक जड़ें फ़ातिमी मिस्र से जुड़ी हैं और वे 11वीं शताब्दी में भारत चले आए थे। पिछले कुछ वर्षों में, वे न केवल भारतीय समाज में घुलमिल गए हैं, बल्कि उन्होंने अपने निवास वाले क्षेत्रों के आर्थिक और नागरिक परिदृश्य को भी बदल दिया है। कई दाऊदी बोहरा अपनी मज़बूत व्यावसायिक नैतिकता के लिए जाने जाते हैं और उन्होंने व्यापार, विनिर्माण और उद्यमिता में उत्कृष्टता हासिल की है। सूरत, उदयपुर और मुंबई ऐसे कुछ शहर हैं जहाँ बोहरा व्यवसाय नेटवर्क फलते-फूलते हैं। ये नेटवर्क ईमानदारी, पारदर्शिता और स्थिरता-मूल्यों पर ज़ोर देते हैं, जिसने उन्हें धार्मिक और भाषाई रेखाओं के पार सम्मान दिलाया है। ऐसे युग में जहाँ धन सृजन को अक्सर सामाजिक ज़िम्मेदारी से अलग रखा जाता है, बोहरा दिखाते हैं कि सांप्रदायिक नैतिकता का पालन करते हुए समृद्ध होना संभव है।   उनकी सामाजिक संस्थाएं मुस्लिम दुनिया में सबसे प्रभावी संस्थाओं में से हैं। मुंबई में स्थित दाई अल-मुतलाक के नेतृत्व में समुदाय का केंद्रीय नेतृत्व संसाधन जुटाने, कल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करने और सामूहिक पहचान की मजबूत भावना को बढ़ावा देने के लिए प्रसिद्ध है। हर बोहरा परिवार को फैज अल-मवैद अल-बुरहानिया (FMB) के माध्यम से प्रतिदिन ताजा, स्वस्थ भोजन मिलता है, जो एक समुदाय है।रसोई पहल। यह कार्यक्रम खाद्य अपशिष्ट को कम करता है, सामाजिक बंधनों को मजबूत करता है, और परिवारों पर दैनिक बोझ को कम करता है। समुदाय द्वारा संचालित स्कूल और कॉलेज धार्मिक और आधुनिक विषयों में लड़के और लड़कियों दोनों को शिक्षित करते हैं, जिससे शिक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता बन जाती है। वास्तव में, बोहराओं में साक्षरता दर-विशेष रूप से महिलाओं में-राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है। स्वच्छता, शहरों के सौंदर्यीकरण और पर्यावरण संरक्षण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता भी उतनी ही उल्लेखनीय है। स्वच्छ भारत अभियान और नियमित सफाई अभियान जैसी पहलों में उनकी भागीदारी दर्शाती है कि धार्मिक पहचान और राष्ट्रीय उद्देश्य एक दूसरे से जुड़े हो सकते हैं। उनकी मस्जिदें, जैसे कि मुंबई में हाल ही में पुनर्निर्मित सैफी मस्जिद, न केवल पूजा स्थल के रूप में बल्कि वास्तुशिल्प स्थलों और सामुदायिक गौरव के प्रतीक के रूप में भी काम करती हैं। जीर्णोद्धार में पारंपरिक और पर्यावरण के अनुकूल तरीकों का इस्तेमाल किया गया, जो अतीत के प्रति श्रद्धा और भविष्य के प्रति चिंता दोनों को दर्शाता है। ये प्रयास बताते हैं कि समावेशी शहरी नागरिकता को बढ़ावा देने के लिए सांस्कृतिक पूंजी का कैसे उपयोग किया जा सकता है।   हालांकि, सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि दाऊदी बोहरा किस तरह से एक अलग सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान बनाए रखते हैं, बिना अलगाव के। वे गर्व से पारंपरिक पोशाक पहनते हैं, लिसान अल-दावत बोलते हैं – जो गुजराती, अरबी और उर्दू का मिश्रण है – और अनोखे रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। फिर भी, वे देश के लोकतांत्रिक और सामाजिक जीवन में सक्रिय रूप से शामिल हैं। सांप्रदायिक हिंसा या कट्टरपंथ से शायद ही कभी जुड़े, बोहरा अपनी सभ्यता, संवाद के लिए प्राथमिकता और संघर्ष के समय शांत कूटनीति के लिए जाने जाते हैं। कानून, अंतर-धार्मिक सम्मान और सामाजिक सद्भाव पर उनका जोर अक्सर विभाजन से चिह्नित देश में धार्मिक सह-अस्तित्व के लिए एक मानक स्थापित करता है।   इस कथा में समुदाय के नेतृत्व ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दिवंगत सैयदना मोहम्मद बुरहानुद्दीन और उनके उत्तराधिकारी सैयदना मुफ़द्दल सैफ़ुद्दीन ने राजनीतिक सीमाओं से परे भारत की सरकारों के साथ मधुर संबंध बनाए रखे हैं। जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक, भारतीय नेताओं ने समाज और अर्थव्यवस्था में बोहरा नेताओं के योगदान को पहचाना और सराहा है, अक्सर एकता और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के उनके संदेश से प्रेरणा लेते हुए। ये रिश्ते उस विश्वास और आपसी सम्मान को रेखांकित करते हैं जो तब पनप सकता है जब कोई समुदाय असाधारणता की मांग किए बिना राष्ट्र-निर्माण में संलग्न होता है।   धार्मिक समुदायों के आलोचक अक्सर आंतरिक पदानुक्रम और पदीय अधिकार की ओर इशारा करते हैं। ये चिंताएँ खुली और सम्मानजनक चर्चा के योग्य हैं। फिर भी, यह भी सच है कि बोहरा समुदाय ने विकास की इच्छा दिखाई है। बोहरा महिलाओं की बढ़ती संख्या शिक्षा, उद्यमिता और यहाँ तक कि वे सार्वजनिक चर्चा में भाग ले रहीं हैं – ये सब समुदाय के सांस्कृतिक ढांचे के भीतर है। बाहरी दबाव के आगे झुकने के बजाय, बोहरा चुपचाप अपना प्रभाव डाल रहे हैं – भीतर से बदलाव। यह मॉडल पहचान संबंधी चिंताओं और सांस्कृतिक ध्रुवीकरण के प्रति रचनात्मक प्रतिक्रिया प्रदान करता है।   व्यापक भारतीय संदर्भ में-जहां मुसलमानों को अक्सर पीड़ितों या खतरों के रूप में एकरूपता में चित्रित किया जाता है, बोहरा समुदाय ऐसे आख्यानों को चुनौती देता है। वे साबित करते हैं कि आस्था को प्रगति में बाधा नहीं बनना चाहिए, और धार्मिक भक्ति संवैधानिक सिद्धांतों के साथ सामंजस्य स्थापित कर सकती है। उनकी जीती-जागती वास्तविकता दर्शाती है कि बहुलवाद केवल एक संवैधानिक वादा नहीं है, बल्कि एक दैनिक अभ्यास है-जिसे अक्सर भव्य इशारों के माध्यम से नहीं, बल्कि नागरिक जिम्मेदारी, आपसी सम्मान और नैतिक जीवन के सामान्य कार्यों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। ऐसे समय में जब भारत नागरिकता, धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक अधिकारों पर जटिल बहस से जूझ रहा है, बोहरा अनुभव मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। दूसरों पर थोपने के लिए एक कठोर मॉडल के रूप में नहीं, बल्कि एक अनुस्मारक के रूप में कि सांस्कृतिक विविधता राष्ट्रीय एकता को कमजोर करने के बजाय मजबूत कर सकती है। (लेखक निर्मल कुमार सामाजिक,आर्थिक व धार्मिक मामलों के जानकार हैं।यह उनके … Read more

संपादकीय : कुनकुरी की राजनीति में चाचा-भतीजे का नया अध्याय

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कुनकुरी की राजनीति इन दिनों छत्तीसगढ़ की सियासत में अलग ही पहचान बना रही है। कभी चावल घोटाले के कारण चर्चा में रहा यह छोटा सा नगर अब राज्य के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय और नगर पंचायत अध्यक्ष विनयशील के रिश्ते और रवैये को लेकर राजनीतिक विश्लेषणों का केंद्र बन गया है। विष्णुदेव साय का मुख्यमंत्री बनना कुनकुरी के लिए बड़े गौरव की बात है। यह पहला मौका है जब इस अंचल से कोई शीर्ष पद तक पहुंचा है। लेकिन इससे भी ज्यादा दिलचस्प यह है कि मुख्यमंत्री के गृहक्षेत्र में हुए नगर पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में जनता ने कांग्रेस के विनयशील को जिताकर एक नया संदेश दिया। यह लोकतंत्र की ताकत है, जहां व्यक्ति के काम और नीयत को प्राथमिकता दी जाती है, न कि सिर्फ पार्टी को।   विनयशील की कार्यशैली इस वक्त खास चर्चा में है। वे मुख्यमंत्री के “भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस” की नीति का खुलकर समर्थन करते हैं और यही कारण है कि चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों दलों के भीतर बैठे भ्रष्टाचार के संरक्षक उन्हें पसंद नहीं करते। लेकिन आम जनता में विनयशील का प्रभाव बढ़ता जा रहा है – चाहे वह राशन दुकानों की शुरुआत हो, वार्डों में सक्रियता हो, या पारदर्शिता की कोशिश।   राजनीतिक समीकरणों को अगर सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए, तो स्पष्ट होता है कि विनयशील और विष्णुदेव साय के बीच ‘राजनीतिक मतभेद’ नहीं बल्कि ‘कार्यशैली का संतुलन’ है। विनयशील, जिन्हें विष्णुदेव साय व्यक्तिगत रूप से स्नेह देते हैं, ने कभी भी उनके प्रति असम्मानजनक व्यवहार नहीं किया। नालंदा परिसर के कार्यक्रम में मंच के सामने रहकर भी उन्होंने राजनीतिक मर्यादा का उदाहरण पेश किया। अब ये भी जान लीजिए विनयशील का विष्णुदेव साय से क्या रिश्ता है तो विनयशील उन्हें चाचा कहता ही नहीं बल्कि जहां तक मुझे अंदाजा है मानता भी है।दरअसल,विनयशील के पिता विष्णु गुप्ता आजीवन संघ विचारधारा के साथ भाजपा से जुड़े रहे।कोरोना में उनकी मृत्यु हो गई।विष्णुदेव साय अपने प्रिय की मृत्यु पर दुखी हुए और मृत्युभोज पर आकर दुःखी परिवार को हिम्मत दी थी।   और यही विनयशील की राजनीति की परिपक्वता है – वे सीधे टकराव नहीं करते, लेकिन चुपचाप बड़े दांव खेलते हैं। नालंदा परिसर का नाम धरती आबा बिरसा मुंडा के नाम करने की मांग इस बात का प्रमाण है। यह सिर्फ एक नामकरण नहीं बल्कि भाजपा की आदिवासी राजनीति के भीतर सेंध लगाने की चतुर चाल भी है। अब यूथ कांग्रेस इस मुद्दे को विश्व आदिवासी दिवस तक आंदोलन का रूप देने की तैयारी में है।   इस सबके बीच भाजपा खेमे में असहजता दिखती है। विनयशील पर काम रोकने के आरोप लगाए जा रहे हैं, लेकिन अभी तक कोई ठोस प्रमाण सामने नहीं आए। वहीं, विनयशील के विरोधी भी इस बात को नकार नहीं सकते कि वे न सिर्फ जनता के छोटे-छोटे काम करवा रहे हैं, बल्कि कागजी सबूतों के साथ भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर कर रहे हैं – जो स्थानीय राजनीति में दुर्लभ है।   कुनकुरी की राजनीति एक दिलचस्प मोड़ पर है। चाचा-भतीजे की इस जोड़ी को जनता उम्मीद भरी नजरों से देख रही है। जनता को इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई भाजपा में है या कांग्रेस में, उसे बस यह दिखना चाहिए कि उसके इलाके में काम हो रहा है, पारदर्शिता है और उसकी आवाज सुनी जा रही है।   अब देखना यह है कि कुनकुरी की यह ‘सियासी कैमिस्ट्री’ वास्तव में जनता के लिए ‘सुनहरे विकास’ का सूत्र बनेगी या आने वाले चुनावों में यह समीकरण एक नए संघर्ष की ओर बढ़ेगा।   – संपादक संतोष चौधरी ख़बर जनपक्ष