छत्तीसगढ़ के साहित्य-सूर्य हुए अस्त: हिंदी के महान साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल का निधन

“लिखना मेरे लिए सांस लेने जैसा है”—यह कहने वाले छत्तीसगढ़ के धरोहर, हिंदी साहित्य के अप्रतिम साधक और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल ने आज दुनिया को अलविदा कह दिया। वे 89 वर्ष के थे। उनके निधन से न केवल छत्तीसगढ़, बल्कि पूरे हिंदी साहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ गई है।
विनोद कुमार शुक्ल छत्तीसगढ़ के पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार थे। उनकी लेखनी में साधारण जीवन की असाधारण गहराई, मानवीय संवेदना और मौन की भाषा बोलती थी। वे शब्दों के शोर में नहीं, बल्कि सादगी, ठहराव और संवेदनशीलता में विश्वास करने वाले रचनाकार थे।
उनका जन्म 1 जनवरी 1937 को मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) में हुआ था। उन्होंने कविता, उपन्यास और निबंध—तीनों विधाओं में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई।
उनकी प्रमुख कृतियों में ‘नौकर की कमीज’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ जैसी रचनाएं शामिल हैं, जिन्होंने हिंदी साहित्य को नई दृष्टि और नई भाषा दी। उनकी रचनाओं पर फिल्में और रंगमंचीय प्रस्तुतियां भी हुईं।
विनोद कुमार शुक्ल की लेखनी किसी आंदोलन की घोषणा नहीं करती थी, बल्कि चुपचाप मनुष्य के भीतर उतर जाती थी। वे उन दुर्लभ साहित्यकारों में थे, जिन्होंने यह सिद्ध किया कि साहित्य ऊंची आवाज़ नहीं, बल्कि गहरी अनुभूति से जीवित रहता है।
उनके निधन को साहित्य जगत “साहित्य के सूर्य के अस्त” के रूप में देख रहा है। उनकी कमी शब्दों से नहीं, बल्कि उस खालीपन से महसूस होगी, जिसे केवल उनकी सादगी और मौन भर सकता था।
आज हिंदी साहित्य ने अपना एक मौन साधक, छत्तीसगढ़ ने अपनी एक अमूल्य धरोहर और पाठकों ने अपने मन का एक सच्चा साथी खो दिया है।
विनोद कुमार शुक्ल भले ही हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनकी रचनाएं सांस की तरह आने वाली पीढ़ियों के साथ जीवित रहेंगी।



















